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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश अपवर्ग का मार्ग बताने में जिनवचन के सिवाय और कोई समर्थ नहीं है। इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव को आगम पर आदरपूर्वक श्रद्धा करना उचित है । क्योंकि जिमका निकट भविष्य में कल्याण होने वाला हो, वही भव्यजीव जिनवचन को भावपूर्वक स्वीकार करता है। दूसरे को तो यह वचन कान में शूल भोंकने के समान दुःखदायो लगता है । इसलिए विपरीत और अश्रद्धामयी दृष्टि वाले के लिए वह अमृत भी विषरूप बन जाता है । यदि इस जगत् में जिनवचन नहीं होते तो धर्म-अधर्म की व्यवस्था के विना लोग भवरूप अन्ध-कूप में गिर जाते. और गिरने के बाद उनका वहाँ से उद्धार कैसे होता?
"जो मलाशय को साफ करना चाहता है, उसे हरें खाना चाहिए" वद्य के इस वनन पर विश्वास रख कर जो हरें खा लेता है, उसे उसके प्रभाव से जुलाब लगता है। रोगी को वैद्य के वचन पर विश्वास बैठ जाता है, इतना ही नहीं, बल्कि आयुर्वेदशास्त्र को वह प्रमाण मानने लगता है। इसी तरह अष्टांगनिमित्तशास्त्र में कहे हुए चन्द्र सूर्य या ग्रह की चाल या धातुवाद, रस-रसायण आदि के प्रत्यक्ष प्रभाव पर विश्वास हो जाने से व्यक्ति उन-उन शास्त्रों में कथित परोक्षभावो से सम्बन्धित वचनों को भी जैसे प्रमाणिक मान लेता है। वैसे ही जिनवचन को समझने में जिसकी बुद्धि मंद है ; उसको भी उसमें कहे हुए प्रत्यक्षभावों की तरह परोक्षभावों को या जो दृष्टि या बुद्धि से भी समझ में नहीं आते, वैसे भावों को भी सत्यरूप में निश्चय मानना चाहिए । इम दुःषमकाल में दिन-प्रतिदिन जनता की बुद्धि मंद होती जा रही है ; जिससे जिनवचन का लगभग उच्छेद हो जाएगा, ऐसा गमझ कर श्रीनागार्जन, श्रीस्कंदिलआचार्य आदि पूर्व-महापुरुषों ने आगमों को लिपिबद्ध करके पुस्तकारूढ़ किये हैं। अत: जिनवचन के प्रति
वाला श्रद्धालु श्रावक इन आगमादि शास्त्रों को पुस्तकरूप में लिखाए (प्रकाशिक करवाए), वस्त्रादि से लपेट कर आदरपूर्वक जिनागमों की पूजाभक्ति करे-करवाए । इसीलिए कहा है -जो भावुक व्यक्ति श्रीजिनेश्वरदेव के वचनस्वरूप आगमादि शास्त्रों को लिखवाता है, (प्रकाशिक करवाता है), वह पुरुष दुर्गति प्राप्त नहीं करता और भविष्य में गूंगा या जड़-मूढ़ अथवा बुद्धिहीन नहीं होता और अन्धा या मूर्ख आदि नहीं होता है । जो भाग्यशाली पुरुप जिनागम लिखवाता (प्रकाशित करवाता) है, निःसंदेह वह सर्वशास्त्रों का पारगामी हो कर मुक्ति प्राप्त कर सकता है । जिनागम का अध्ययन करने-कराने वाले का वस्त्रादि से पूजा-भक्तिपूर्वक सम्मान करना चाहिए। और भी कहा है - 'जो स्वयं जिन-आगम पढ़ता है, दूसरों को पढ़ाता है और पढ़ने-पढ़ाने वालों को सदा वस्त्र, आहार, पुस्तक या पढ़ने की सामग्री देने का अनुग्रह करता है, वह मनुष्य यहीं पर ममस्त पदार्थों या तत्वों का जानकार हो जाता है । लिखे हुए शास्त्रों एवं प्रन्थों को सविग्न एव गीतार्थ मुनियों को अतिसम्मानपूर्वक स्वाध्याय या व्याख्यान करने के लिए दान देना चाहिए । किसी भी आगम या ग्रन्थ पर व्याख्यान कराना हो तो प्रतिदिन उसकी पूजाभक्तिपूर्वक श्रद्धाभाव से उसका श्रवण करना चाहिए। निष्कर्ष यह है कि जिन-आगम के लिए अपना घनदान करके उसका सदुपयोग करना चाहिए।
(४) साघु-क्षेत्र- चौथा सम्यक् क्षेत्र साधुगण हैं । श्रीजिनेश्वर भगवान की आज्ञानुसार सम्यक् चारित्र के पालक, दुर्लभ मनुष्यजन्म को सफल करने के लिए संसारसमुद्र से पार उतरने और दूसरे को भी पार उतारने के लिए प्रयत्नशील ; श्रीतीर्थकर, गणघरों से ले कर आज तक के दीक्षित सामायिकसंयमी साधु-भगवन्तों की यथायोग्य सेवा-भक्ति में अपना धन लगाना चाहिए। वह इस प्रकार -उपकारी साधु-महाराज को कल्पनीय निर्दोष अचित्त आहारादि, रोगनाशक औषधादि ; शर्दी, गर्मी, वर्षा, रोग एवं लज्जा के निवारणार्थ वस्त्रादि और प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करने के लिए रजोहरण आदि देना; आहार