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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश प्राप्ति असंभव मानना योग्य नहीं माना जा सकता। इससे सिद्ध हुआ कि 'मुक्ति-साधनामूर्ति साध्वियों में साधु के समान अपना धन लगाना योग्य है । साध्वियों की सेवाभक्ति में इतना विशेष समझना चाहिये'दुराचारी नास्तिकों के जाल से साध्वियों की सुरक्षा करनी चाहिए, तथा उन्हें निवास के लिए अपने घर के नजदीक, चारों तरफ से सुरक्षित और गुप्त द्वार वाला ; मकान, उपाश्रय या रहने का स्थान देना चाहिए । अपने घर की स्त्रियों द्वारा उनकी सेवा करवानी चाहिए ; अपनी पुत्रियों को उनके सम्पर्क में रखना चाहिए, उनसे परिचत कराना चाहिए और अपनी किसी कन्या की दीक्षा लेने की भावना हो तो उसे नि:संकोच समर्पित करना चाहिए । वे कोई करने योग्य कार्य भूल जाय तो याद दिला देना चाहिए। साध्वीजी गलत प्रवृत्ति करती हों तो विनयपूर्वक रोकना चाहिए। अपनी लड़कियां या घर की स्त्रियां अगर उनकी सेवाभक्ति करना भूल जाँय तो उन्हें सावधान करना चाहिए । बार-बार चेतावनी देने पर भी न माने तो उन्हें शिक्षा देनी चाहिए । बार-बार भूल करें तो कठोर वचन से उपालम्भ आदि देना चाहिए । संयमोचित वस्तुएँ दे कर उनकी सेवा करनी चाहिए।
(६) श्रावक-क्षेत्र-छठा क्षेत्र श्रावक का है। इस क्षेत्र में अपना धन लगाना चाहिए । श्रावक घावक का सार्मिक माना जाता है। समानधर्मा पुरुषों का समागम जब महापुण्य से होता है, तो फिर उनके अनुरूप सेवा करने की तो बात ही क्या? अपने पुत्र-पुत्री आदि के जन्मोत्सव, विवाह आदि अवसरों पर सार्मिकों को निमंत्रण देना, विशिष्ट प्रकार का भोजन, ताम्बूल, वस्त्र-आभूषण आदि देकर उनकी भक्ति करनी चाहिए । यदि उन पर कोई विपत्ति आ पड़ी हो तो अपना धन दे कर उनका उद्धार करना चाहिए। अंतरायकर्म के उदय से कदाचित् उनका वैभव चला गया हो तो सहायता दे कर या रोजगार-धंधे से लगा कर उनकी स्थिति सुधार देनी चाहिए । धर्म में गिरते हुए को पहले की तरह स्थिर कर देना चाहिए। धर्माचरण में प्रमाद करता तो तो उसे याद दिलाना, अनिष्टमार्ग में जाने से रोकना, प्रेरणा देना, बार-बार प्रेरणा करना, धार्मिक अभ्यास कराना व उसकी शंका का समाधान करना; पढ़े हुए को दोहराना, उसके साथ विचार-विमर्श करना, धर्मकथा आदि में यथायोग्य लगाना और कोई विशिष्ट धर्मानुष्ठान या सामूहिक धर्म-क्रिया या सामूहिक धर्माराधना होती हो तो प्रत्येक स्थान पर उसे साथ में लेजाना पोषधशाला आदि बनाना चाहिए।
(७) श्राविका-क्षेत्र-सातवां श्राविकारूपी धर्मक्षेत्र है। श्रावक के समान श्राविकावर्ग की उन्नति या उत्कर्ष के लिए भी अपना धन लगाना चाहिए। श्रावक से श्राविका को जरा भी कम या अधिक नहीं समझना चाहिए। ज्ञान-दर्शन-चरित्रसम्पन्न, शील और संतोष गुण के युक्त, महिला चाहे सधवा हो अथवा विधवा, जिन-शासन के प्रति अनुराग रखती हो, उसे सार्मिक बहन, माता या पुत्री माननी चाहिए । यहाँ यह शंका की जाती है कि 'स्त्रियां शील-पालन कैसे कर सकती हैं ? और किस तरह वे रत्नत्रययुक्त हो सकती हैं ? क्योंकि लोक और लोकोत्तर व्यवहार में तथा अनुभव से स्त्रियां दोषभाजन के रूप में प्रसिद्ध हैं। वास्तविक में स्त्रियां भूमि के बिना उत्पन्न हुई विषकंदली है, बादल के बिना उत्पन्न हुई बिजली हैं, बिना नाम की व्याधि हैं, अकारण मृत्यु हैं, गुफा से रहित सिंहनी और प्रत्यक्ष राक्षसी हैं । वे असत्-वादिनी, साहसी, और बन्धु-स्नेह-विधातिनी एव संताप की हेतु हैं। वे अविवेकता की महाकारणभूत होने से दूर से ही त्याज्य हैं । फिर उन्हें दान दे कर उनका सम्मान करना, उनके प्रति वात्मल्य करना किस तरह उचित है ? इसके उत्तर में कहते हैं कि 'स्त्रियों में अधिकांशत: दोष होते हैं, यह बात एकान्तत. ठीक नहीं है । पुरुषों में भी यह बात हो सकती है। उनमें भी क्रूर माशय वाले,