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छठे दिशापरिमाणव्रत के अतिचारों पर विवेचन
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उसकी नियत की हुई संख्या नही बढ़ी और व्रत भा सर्वथा भंग नहीं हुआ; फिर भी घर और खेत की कीमत तो बढ़ ही गई इस अपेक्षा से भगाभंगरूप यह चौथा अतिचार है। इसी प्रकार किसी ने सोना या चांदी अमुक प्रमाण (वजन) से अधिक न रखने का चार महोने की अवधि का नियम लिया । इसी दौरान राजा ने खुश हो कर सोना या चादी का इनाम दिया। अब जब उसने देखा कि यदि मैं इस सोने या चादी को ले कर घर में रख लेता हूं ता अमुक महीने तक के इतनी मात्रा से अधिक चांदी-सोना न रखने को मेरा नियम भग हो जायगा ; अत इस अपेक्षा से उक्त सोने या चादी को अपने किसी मित्र या परिचित के यहाँ यह सोच कर रख दे कि 'मेरे नियम की अवधि समाप्त होते ही मैं इसे ले लूंगा ।' वास्तव में इस अपेक्षा से दूसर के यहाँ रखने पर भी उस पर अपना स्वामित्व होने से व्रतभग होता है, किन्तु व्रत को महीसलामत रखने की नीयत होने से व्रतपालन हुआ, इस प्रकार भंगाभंग के रूप में पांचवां अतिचार लगता है, ऐसा समझना चाहिए ।
इरा तरह पांचों प्रकार के परिग्रह की मर्यादा करने वाले श्रावक को उसका उल्लंघन नहीं करना चाहिए; कि वैसा करने से व्रत में मलिनता आती है । उपलक्षण से उसके अलावा विचारों को बेसमझी से अथवा अतिक्रमण आदि से भी ये अतिचार लगते हैं ।
इस प्रकार पांचों अणुव्रतों के प्रत्येक के पांच-पांच अतिचारों का वर्णन पूरा हुआ ।
इसके बाद अब गुणव्रतों के अतिचारों का प्रसंग प्राप्त है । अतः दिक्परिमाण - (दिग्विरति ) रूप प्रथम गुणव्रत के अतिचार बताये हैं
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स्मृत्यन्तर्धानमूर्ध्वाधस्तिर्यग्भाग- व्यतिक्रमः ।
क्षेत्र वृद्धिश्च पंचेति स्मृता दिग्विरति व्रते ॥९६॥
अर्थ (१) निश्चित की हुई सीमा भूल जाना, (२-३-४) ऊपर नीचे और तिरछे ( तिर्यक्) दशों दिशाओं में आने-जाने के नियम की मर्यादा का उल्लघन करना, ये तीन अतिचार और ( ५ ) क्षेत्र की वृद्धि करना, इस तरह प्रथम गुणव्रत के ५ अतिचार हैं ।
व्याख्या-- पूर्वाचार्यों ने दिग्विरतिव्रत के ५ अतिचार इस प्रकार बताये हैं
(१) स्मृतिभ्रंश - प्रथम अतिचार है । वह इस प्रकार है— स्वयं ने गमनागमन की जित सीमा जिस दिशा में निश्चित की हो, वहां जाने पर या जाने के समय अतिव्याकुलता या प्रमाद के कारण स्मरण न रहना, स्मृति लुप्त हो जाना या भूल जाना। मान लो, किसी ने पूर्वदिशा में १०० योजन तक जाने की मर्यादा की हो, लेकिन जाने के समय स्पष्टरूप से वह याद न रहे, अथवा संशय में पड़ जाय कि मेने ५० योजन तक गमनागमन का परिमाण किया है या १०० योजन तक जाने-आने का किया है ? ऐसी शंका होते हुए भी उस दिशा में ५० योजन से आगे जाए तो वहां उसे यह अतिचार लगता है। सौ से अधिक जाने पर तो व्रतभंग हो जाता है। अतिचार और व्रतभंग क्रमशः सापेक्षता और निरपेक्षता की दृष्टि से होते हैं। इसलिए लिये हुए व्रत को याद रखना ही चाहिए; क्योंकि तमाम धर्मानुष्ठान स्मरणपूर्वक होते हैं। यह प्रथम अतिचार हुआ। ऊपर उड़ना या पर्वत या वृक्ष के शिखर पर चढ़ना
वगमन है; भूमिगृह (तलघर), कुए आदि में नीचे उतरना अधोदिशा में गमन है। पूर्व आदि दिशाओं में गमन तिर्यग्गमन है । इन तीनों की जिस-जिस दिशा में जितनी मर्यादा की हो, उसका उल्लंघन करने से ये तीनों अतिचार लगते हैं । इसीलिए सूत्र में कहा है- 'ऊबंदिशा का अतिक्रम, अधोदिशा का अतिक्रम,
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