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योगशास्त्र: तृतीय प्रकाश
अब भाटकजीविका से बारे में कहते हैं -
शकटोक्षर लायोष्ट्रखराश्वतरवाजिनाम् ।
भारस्य वहनाद्वृत्तिर्भवेद् भाटकजीविका ॥१०४॥ अर्थ-गाड़ी, बैल, ऊंट, भैंसा, गधा, खच्चर, घोड़ा आदि पर भार लाद कर किराया लेना अथवा इन्हें किराये पर दे कर आजीविका चलाना, भाटक (भाड़ा, जीविका कहलाता है। अब स्फोटजीविका के विषय में कहते हैं
सरःकूपादिखनन-शिलाकुट्टनकर्मभिः ।
पृथिव्यारम्भसम्भूतैर्जीवनं स्फोटजीविका ॥१०॥ अर्थ-तालाब, कुए आदि खोदने, पत्थर फोड़ने इत्यादि पृथ्वींकाय के घातक कर्मों से जीविका चलाना, स्फोटक-जीविका है।
व्याख्या- सरोवर, कुंए, बावड़ी आदि के लिए जमीन खोदना, हलादि से खेत वगैरह की भूमि उखाड़ना, खान खोद कर पत्थर निकालना, उन्हें घड़ना इत्यादि कर्मों से पृथ्वीकाय का आरम्भउपमर्दन होता है । ऐसे कार्यों से आजीविका चलाना, स्फोटजीविका है। अब दंतवाणिज्य के विषय में कहते हैं -
दन्तकेशनखास्थित्वग्रोम्णो ग्रहणमाकरे ।
त्रसाङ्गस्य वाणिज्याथं दन्तवाणिज्यमुच्यते ॥१०६।। अर्थ-वांत, केश, नख, हडडी, चमड़ा, रोम इत्यादि जीवों के अंगों को उनके उत्पत्ति-स्थानों पर जा कर व्यवसाय के लिए ग्रहण कररा और बेचना दंत-वाणिज्य कहलाता है।
व्याख्या- हाथी के दांत, उपलक्षण से त्रसजीवों के अंग भी उनके उत्पत्ति-स्थानो पर से खरीदना ; चमरी आदि गाय के केश, उल्लू आदि के नख, शंख आदि की हड्डी, बाघ आदि का चमड़ा, हम आदि के रोम ; इनके उत्पादकों को पहले से मूल्य आदि दे कर स्वीकार करना या उनके उत्पत्तिस्थानों पर जा कर उक्त प्रस-जीवों के अवयवो को व्यापार के लिए खरीदना, दांत आदि लेने के लिए भील आदि को पहले से मूल्य देना दंतवाणिज्य है। इसमें दांत आदि के निमित्त से हाथी आदि जीवों का वध किया जाता है। श्लोक में 'कर' शब्द है । इसलिए अनाकर में या उनके उत्पत्तिस्थान के अलावा किसी स्थान पर इन्हें ग्रहण वरने या बेचने में दोप नहीं कहा गया है। अत: उत्पत्तिस्थान में प्रहण करने से दन्तवाणिज्य कहलाता है । उसमें अतिचार लगता है। अब लाक्षावाणिज्य के सम्बन्ध में कहते हैं
लाक्षा-मनःशिला-नोलो-धातकी-टङ्कणादिनः । विक्रयः पापसदनं लाक्षावाणिज्यमुच्यते ॥१०७॥