________________
३१५
अंगारजीविका, वनजीविका और शकटजीविका का स्वरूप
अंगार-म्राष्ट्रकरणं कुम्भायःस्वर्णकारिता।
ठठार-त्वेष्टकापाकाविध रंगारजीविका ॥१०१॥ अर्थ- लकड़ी को जला कर कोयले बनाना और उसका व्यापार करना, भड़भूजे, कुम्भकार, लुहार, सुनार, ठठेरे और ईट पकाने वाले, इत्यादि के कर्म अंगारजीविका कहलाती है।
व्याख्या-लकड़ियां जला कर अंगारे (कोयले) बनाना, उन्हें बेचना, अंगारकर्म है । कोयले बनाने से कई स्थावर एवं त्रसजीवों की विराधना की संभावना होती हैं। इसलिए मुख्यतया अग्निविराधनारूप जो-जो आरम्भ होता है, वह अंगारकर्म में समाविष्ट हो जाता है। यहां कर्मादान के एक भेद को विस्तार से समझाया है बाकी के भेद भी इसी प्रकार समझ लेने चाहिए। तात्पर्य यह है कि अनाज को सेक कर आजीविका करने वाले भड़भूजे, कुम्हार, लुहार, सुनार, इंट या मिट्टी के बर्तन आदि बना कर आवे में पका कर बेचने वाला, मिठाई आदि बनाने के लिए भट्टी सुलगा कर आजीविका चलाने वाला, अंगारजीवी है। ये लोग लोहा, सोना, चांदी आदि धातुओं को गलाते हैं, उसे घड़ कर गहने बनाते हैं, घड़े व बर्तन आदि बनाते हैं, तांबा, सीसा, कांसा, पीतल आदि धातुओं को गला कर इनके विविध बर्तन बनाते हैं. तथा उनके विभिन्न डिजाइन बनाते हैं। ये और इसी प्रकार की आजाविका चलाना - विशेषतः वर्तमानयुग में मुख्यरूप से अग्नि की विराधना करना आदि सभी अंगारजीविका के अन्तर्गत माने जाते हैं । अब वनजीविका के विषय में कहते हैं
छिन्नाछिन्नवन-पत्र-प्रसून-फलविक्रयः।
कणानां दलनात् पेषाद वृत्तिश्च वनजीविका ॥१०२॥ अथ-जंगल में कटे हुए या नहीं कटे हुए वृक्ष के पत्ते, फूल, फल, आदि को बेचना, चक्की में अनाज दल कर या पीस कर आजीविका चलाना इत्यादि जीविका वनजोविका है। बनजीविका में मुख्यतः वनस्पतिकाय का विधात होने की संभावना है। अब शकटजीविका के विषय में कहते हैं
शकटानां तदंगानां घटनं खेटनं तथा।
विक्रयश्चेति शहाजीविका परिकीर्तिता ॥१०३॥ अर्थ--शकट यानी गाड़ी और उसके विविध अंग-पहिये, आरे आदि स्वयं बनाना, दूसरों से बनवाना, अथवा बेचना या विकवाना इत्यादि व्यवसाय को शकटजीविका कहा है।
शकटजीविका समस्त जीवों के उपमर्दन का हेतुभूत एवं बैल, घोड़ा, गाय आदि के वध एवं बन्धन का कारण होने से त्याज्य है।