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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाण
मान कर, सौत की बारी के दिन पति के साथ सहवास करती है तो उस अपेक्षा से उसे यह अतिचार लगता है। कोई स्त्री परपुरुष के साथ सहवास की इच्छा करती है या उपाय करती है, तब तक उसे अतिक्रम, व्यतिक्रम या अतिचाररूप दोष लगते हैं, किन्तु परपुरुष के साथ सम्भोग मे प्रवृत्त हो जाय तो व्रतभग हो जाता है। किसी ब्रह्मचारी (जो किसी स्त्री का भी पति नहीं है) या अपने पति से साथ भी तीव्र कामक्रीड़ा की इच्छारूप अतिक्रम से उक्त पांचों अतिचार लगते है । शेप तीनों अतिचार तो पूर्वोक्त प्रकार से पुरुषों की तरह ही स्त्रियों के विषय में समझ लेने चाहिए। अब पांचवें व्रत के अतिचारों के सम्बन्ध में कहते हैं
धन-धान्यस्य कुप्यस्य, गवादेः क्षेत्र-वास्तुनः ।
हिरण्य- हेम्नश्च संख्यातिक्रमोऽत्र परिग्रहे ॥९॥ अर्थ-धन और धान्य की, गृहोपयोगी साधनों की, गाय-भैस, दास-दासी आदि को, खेत, मकान, जमीन आदि की और सोना-चांदी आदि परिग्रह की जो मर्यादा (परिमाण) निश्चित की हो, उससे अधिक रखना, ये पांचवें व्रत के क्रमशः पांच अतिचार हैं।
व्याख्या-श्रावकघोंचित परिग्रह-परिमाणवत में सद्गृहस्थ ने जो संख्या या मात्रा नियत की हो, उस संख्या या मात्रा का उल्लंघन करने पर अतिचार लगता है । सर्वप्रथम यहाँ धन और धान्य का स्वरूप बताते हैं । धन चार प्रकार का कहा गया है-गणिम, धरिम, मेय और परीक्ष्य । जायफल, सुपारी आदि जो चीजें गिन कर दी जाती हैं, वे गणिम कहलाती है। कुकुम, गुड़ आदि जो चीजे तौल कर दी जाती हैं, वे धरिम कहलाती हैं, और तेल, घी आदि जो चीज नाप कर (नापने के बर्तन से) दी जाती हैं, वे मेय कहलाती हैं; कपड़ा आदि चीजें भी गज आदि से नापी जाती हैं, इसलिए वे भी मेय के अन्तर्गत हैं; और चौथा धन परीक्ष्य हैं-रत्न, गहने, मोती आदि, इन्हें परीक्षा करके दिया जाता है । इन चारों प्रकारों में सभी वस्तुएं आ जाती है, जिनकी श्रावक उसी तरह से मर्यादा करता है। धान्य १७ प्रकार का है-(१) चावल, (२) जो, (३) गेहूँ, (४) चना, (५) जुआर, (६) उड़द, (७) मसूर, (८) अरहर, (8) मूग, (१०) मोठ, (११) चौला (राजमा) (१२) मटर, (कुलथ, (१४) तिल, (१५) कोदो (१६) रागून (ौंगी) और (१७) सन धान्य । अन्य ग्रन्थों मे २४ प्रकार के धान्य भी बताये हैं । धन और धान्य दोनों की जिननी मर्यादा निश्चित हो; उससे अधिक स्वयं रखना या दूसरे के यहां रखना, प्रथम धन्य-धान्यप्रमाणातिकम अतिचार है । बाह्य परिग्रह नौ प्रकार का है। यहां पर दो. दो प्रकार एकत्रित करके पांच अतिचार बताये हैं। दूसरा अतिचार कुप्यप्रमाणातिकम है। इसका अर्थ है-सोनेचांदी के सिवाय हल्की किस्म की धातु-कांसा, तांबा, लोहा, शीशा, जस्ता, गिलट, आदि धातुओं के बर्तन, चारपाई, पलंग, कुर्सी, मोफामेट, अलमारी, रथ गाड़ी, मोटर, हल, ट्रॅक्टर आदि खेती के साधन और अन्य गृहोपयोगी सामान (फर्नीचर) कुप्य के अन्तर्गत आते हैं । ये और इन जैसी अन्य गृहोपयोगी सामग्री की जितनी मर्यादा निश्चित हो, उसका उल्लंघन करना दूसरा कुप्यप्रमाणातिक्रम अतिचार है। तीसरा है-द्विपद-चतुष्पद-प्रमाणातिकम । दो पैर वाले द्विपद में मनुष्य, पुत्र-स्त्री, दास, दासी, नौकर आदि आते हैं, चतुष्पद में गाय, बैल, भैस, भैसे, बकरी, भेड़, गधा, ऊंट, हाथी, घोड़ा अदि जितने भी चौपाये पालतू जानवर हैं, वे आते हैं । इसी प्रकार तोता-मैना, हंस, मयूर, मुर्गा, चकोर आदि पक्षी भी इसी के अन्तर्गत आते हैं । इनके रखने की जितनी संख्या नियत की हो, उससे अधिक रखना, दिपद