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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश अवस्था में होती है। यदि मिथ्यादृष्टि भद्रपरिणामी व्यक्ति चतुर्थव्रत ले कर उपकारबुद्धि मे ऐसा करता है तो, वहाँ उसे मिथ्यात्व लगता है। यहां प्रश्न होता है कि जब दूसरे के संतानों का विवाह करने में अतिचार लगता है तो अपने पुत्र-पुत्री आदि का विवाह करने में अतिचार क्यों नहीं लगता? दोष तो दोनों हालत में समान है ।" इसका समाधान ज्ञानी पुरुष यों करते हैं कि यह बात टीक है कि दोनों के विवाह करने में एकसरीखा दोष है। लेकिन स्वदारसंतोषी यदि अपनी पुत्री का विवाह नहीं करता है तो उसके व्यभिचारिणी या स्वच्छन्दाचारिणी बन जाने की संभावना है, इससे जिनशासन की एवं अपनी ली हुई प्रतिज्ञा की अपभ्राजना होती है किन्तु उसकी शादी कर देने के बाद तो वह अपने पति के अधीन हो जाती है, इसलिए वमा नहीं होता। यदि होता है तो भी अपने व्रत या धर्म की निन्दा नहीं होती । नीतिशास्त्र में भी कहा है- स्त्री की कौमार्य अवस्था में पिता, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र रक्षा करता है । इसलिए स्त्री किसी भी हालत में स्वतंत्रता के योग्य नहीं है। ऐसा सुना जाता है कि दशाहं श्रीकृष्ण तथा चेटक राजा के अपने संतान का विवाह न करने का नियम था। उनके परिवार में अन्य लोग विवाहादि कार्य करने वाले थे; इसलिए उन्होंने ऐसा नियम लिया था। इस अतिचार के अर्थ के विषय में अन्य आचार्यों का मत है.. "अपनी स्त्री में पूर्ण संतोष न मिलता हो, तब (उसकी अनुमति के बिना अन्य स्त्री से विवाह करने से परविवाहकरण' नामक अतिचार लगता है । उनके मतानुसार 'स्वदारसंतोषी' को यह तीगरा अतिचार लगता है। (४) काम-क्रीड़ा में तीन आसक्ति नामक अतिचार तब होता है, जब पुरुष अन्य सभी कार्यों या प्रवृत्तियों को छोड़ कर रात-दिन केवल विषय. भोग की ही धुन में रहता है, कामभोग के विषय में ही सोचता है, अथवा स्त्री के मुख. कांख या योनि आदि में पुरुषचिह्न डाल कर काफी समय तक अतृप्तरूप में शव की तरह निश्चेष्ट पड़ा रहता है, या नर और मादा चिड़िया की तरह बार-बार सम्भोग करने में प्रवृत्त होता है, अगर कमजोर हो जाय तो सम्भोग करने की शक्ति प्राप्त करने के लिए बाजीकरण का प्रयोग करता है या रसायन (भस्म आदि) का सेवन करता है। क्योकि बाजीकरण से या ऐसी औषधि आदि का सेवन करने से पुरुप हाथी को भी हरा देता है ; घोड़े को भी पछाड़ देता है । इस प्रकार से बलवान बन कर पुरुष अतिसंभोग मे प्रवृत्त होता है। वह सोचता है कि मेरे तो परस्त्रीसेवन का त्याग है, स्वस्त्री के साथ चाहे जितनी बार संगम करने में व्रतमग तो होता नहीं। इस अपेक्षा से उसे चौथा अतिचार लगता है। (१) अनंगक्रीड़ा-पुरुष को अपने कामांग से भिन्न पुरुष, स्त्री या नपुसक के कामांग से सहवास करने की इच्छा होना, अथवा वेदोदय से हस्तकर्म आदि करने की इच्छा होना, तथा स्त्री को पुरुष, स्त्री या नपुंसक के साथ सहवास करने की इच्छा होना अथवा वेदोदय से हस्तकर्म आदि करने की इच्छा होना, एवं नपुंसक को स्त्री, पुरुप या नपुंसक के साथ सम्भोग की अथवा वेदोदय से हस्तकर्म आदि करने की इच्छा होना ; अनंगक्रीड़ा है। अनंगक्रीड़ा का तात्पर्य है--कामोत्तेजनावश मथुन सेवन के योग्य अंगों के अतिरिक्त दूसरे अंगों से दुश्चेष्टा करना, दूसरी इन्द्रियों से सम्भोगक्रीड़ा करना, अथवा असंतुष्ट हो कर काष्ठ, पत्थर या धातु की योनि या लिंग सरीखी आकृति बना कर, अथवा केले आदि फलों से लिंगाकृति कल्पित करके या परवल आदि से योनि-सी आकृति की कल्पना करके अथवा मिट्टी, रबड़, या चमड़े आदि के बने हुए पुरुषचिह्न या योनिचिह्न से कामक्रीड़ा करना; स्त्री के योनिप्रदेश को बार-बार मसलना, उसके केश खींचना, उसके स्तनों को बारबार पकड़ना, पैर से कोमल लात मारना, दांत या नख आदि से काटना, बार-बार चुम्बन करना आदि, मोहनीयकर्म के उदय से प्रबल कामवद्धक ऐसी चेष्टाएँ करना भी अनगक्रीड़ा कहलाती है। अथवा मैथुन के अवयवों- पुरुषचिह्न और