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ब्रह्मचर्याणुव्रत के पांच अतिचारों पर विवेचन
होता है। इस प्रकार
अर्थ है - अपरिग्रहीता (पति) नहीं है, अथवा
व्याख्या - ब्रह्मचर्याणुव्रत का स्वदारसंतोष-परदारविरमणव्रत नाम अधिक प्रचलित है । इस दृष्टि से इस व्रत के ५ अतिचार बताये गए हैं - ( १ ) इस्वरात्तागम - इत्वरी शब्द का अर्थ होता है थोड़े समय के लिये रखी हुई। ऐसी स्त्री, अनेक पुरुषों के पास जाने वाली कुलटा या वेश्या होती है, अथवा रखेल होती है, जिसे वेतन या किराये भाड़े पर रखी जाती है, या फिर उसके भरण-पोषण का जिम्मा ले कर रखेल या दासी (गोली) के रूप में रखी जाती है। ऐसी स्त्री के साथ गमन करना इत्त्वरात्तागम कहलाता है। ऐसी स्त्री रखने वाला पुरुष अपनी दृष्टि या कल्पना से उसे अपनी पत्नी मानता है, इसलिए व्रतमापेक्षता होने से स्वदारसंतोपव्रत का भंग तो नहीं होता, किन्तु अल्पकाल के लिए स्वीकृत होने पर भी वास्तव में पराई स्त्री होने की अपेक्षा से व्रतभंग इत्वरात्तागम भागाभंगरूप प्रथम अतिचार है । ( २ ) अनात्तागम - अनात्ता का अर्थात् जिसका किसी पुरुष के साथ पाणिग्रहण नहीं हुआ है, जिसका कोई स्वामी जिसे खुद ने पाणिग्रहण करके स्वीकार नहीं किया है । ऐसी स्त्री कुंवारी कन्या, विधवा, वेश्या, स्वच्छन्दा चारिणी (कुलटा ) या परित्यक्ता कुलवती आदि में से कोई भी हो सकती है; अतः ऐसी अपरिगृहीत स्त्री के साथ संभोग करना द्वितीय अतिचार है । बेसमझी से अज्ञानता या प्रमाद से, अतिक्रम आदि होने से यह अतिचार लगता है, परन्तु परादारात्यागी को ये दोनों अतिचार इसलिए नहीं लगते कि वेश्या या कन्या अथवा विधवा के उस समय कोई पति (स्वामी) नहीं होता । वेश्या या कुलटा के तो कोई पति होता ही नहीं। और फिर थोड़े समय के लिए वह उसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लेता है । शेष अतिचार उक्त दोनों को लगते हैं । स्वदारासंतोषव्रती के लिए ये पांचों अतिचार जानने योग्य हैं, आचरण करने योग्य नहीं । इस विषय में अन्य आचार्यों का मत यह है कि ये दोनों अतिचार उक्त दोनों प्रकार के पुरुषों को लगते हैं; क्योंकि स्वदार संतोषी किसी स्त्री ( वेश्या आदि) को थोड़े समय के लिए रख कर उसे सेवन करे तो उसे अतिचार लगता है, यह तो स्पष्ट है । लेकिन पतिविहीन स्त्री के साथ संगम करने से परदा रात्यागी को भी अतिचार लगता है कि वेश्या आदि पति-रहित होती है, और उसे थोड़े समय के लिए स्त्री बना कर अपने पास रखता है; उसके बाद वह दूसरे के पास जाती है, तब दूसरे की स्त्री बन जाती है, इस दृष्टि से वेश्या आदि कथंचित् परस्त्री होने से व्रतभंग होता है, और वस्तुतः परस्त्री न होने से व्रतभंग नहीं होता। इस तरह भंगाभंगरूप दूसरा अतिचार स्वदार संतोषी और परदारत्यागी दोनों के लगता है । ( ३ ) परविवाहन — अपने पुत्र-पुत्री आदि के सिवाय दूसरे के पुत्र-पुत्री आदि का विवाह करने से अथवा कन्यादान के फल पाने की इच्छा से या अपने पुत्र को भी कन्या मिल जाने की आशा से अथवा स्नेहसम्बन्ध से लिहाज में आ कर विवाहक्रिया करने से परविवाहकरण नामक अतिचार लगता है। जिसने अपनी पाणिगृहीतस्त्री के सिवाय अन्यस्त्री के साथ मैथुन सेवन नहीं करना, नहीं कराना; इस रूप में स्वदारसंतोषव्रत लिया हो, अथवा अपनी स्त्री या विवाह किये बिना ही स्वीकृत स्त्री के अलावा अन्य से मन, वचन, काया से मैथुनसेवन न करने, न कराने का व्रत अंगीकार किया हो, उसके द्वारा दूसरों के विवाहसम्बन्ध जोड़ना; वस्तुत: मंथुन में प्रवृत्त कराना है, इस दृष्टि से इस बात का त्याग ही होना चाहिए । इस अपेक्षा से ऐसी प्रवृत्ति से उसका व्रतभंग होने पर भी वह अपने मन में समझता है- 'मैं तो केवल विवाह कराता हूं, मैथुन सेवन नहीं कराता । इसलिए मेरा व्रतभंग नहीं होता।' इस प्रकार अपने व्रत की रक्षा करने की भावना होने से ऐसी हालत में उसे अतिचार लगता है । परविवाह करके कन्यादान का फल प्राप्त करने की इच्छा सम्यग्दृष्टि को अपरिपक्व
यों
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