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तृतीय अणुव्रत के पांच अतिचारों पर विवेचन
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कोई न्यक्ति प्रतपालन की भावनापूर्वक असत्य लिखता है, तो वहां यह पांचवा अतिचार है । इस तरह दूसरे व्रत के ये पांच अतिचार हुए। अव तीमा अस्तेयाणवत के पांच अतिचार कहते हैं -
स्तेनानुज्ञा तदानीतादानं द्विड्राज्यलंघनम् ।
प्रतिरूपक्रिया मानान्यत्वं चास्तेयसभिताः ॥९२॥ __ अर्थ - (2) चोर को चोरी करने की अनुमति या सलाह देना, (२) चोरी करने में उसे सहायता ऐना अथवा चोरी करने के बाद उसको सहयोग देना, (३) अपने राज्य को छोड़ कर शत्रले राज्य में जाना अथवा राज्यविरुद्ध कार्य करना, (४) अच्छी वस्तु बता कर खराब वस्तु देना, (५) खोटे बांट और खोटे गज (नापतौल) रखना या नापतौल में गड़बड़ करना, ये पाँच अस्तेमाणुव्रत के पांच अतिचार हैं।
व्याख्या - अस्तेयाणुव्रत की प्रतिज्ञा 'स्वयं चोरी नहीं करूंगा, न कराऊंगा; मन-वचन -- काया से", इस रूप में होती है । इसलिए मैं तो चोरी कर नहीं रहा हूँ' यह समझ कर चोर को नोरी करने की प्रेरणा, सलाह या अनुमति देना अथवा चोरी करने पर शाबाशी देना, प्रोत्साहन देना या पीठ ठोकना यह तृतीयव्रत का प्रथम अनिचार है। अश्रवा चोर को चोरी करने के लिए औजार, हथियार, कोश, केची आदि मुफ्त में देना या कीमत ले कर देना। यहां पर तीसरे व्रत की प्रतिज्ञा के अनुसार इस अतिचार से व्रती का व्रतभग होता है। किसी को यह प्रेरणा देना कि आजकल तुम बेकार क्यों बैठे हो? तुम्हारे पास खाना आदि न हो तो मैं दूंगा । तुम्हाग चुराया हुआ माल कोई नहीं खरीदेगा तो मैं खरीद लगा।" इस प्रकार प्रेरणा दे कर यह मान लेना कि मैं उसे चोरी करने की प्रेरणा थोडे ही दे रहा हूं, मैं तो उसे आजीविका की प्रेरणा दे रहा हूं। इसमें व्रतपालन की भावना होने गे मापेक्षता के कारण प्रथम अनिचार लगता है। 'तदानीतादानं' का मतलब है-चोर के द्वारा चुग कर लाई हई वस्तु का ग्रहण करना । चोर के द्वारा चुराये हुए सोने, चांदो, कपड़े आदि को कम मूल्य में, मुफ्त में या गुप्तरूप से ले लेना भी चोरी कहलाती है, क्योकि इससे स्वय चोरी न करने पर भी चोरी को प्रोत्साहन मिलता है, सरकार द्वाग दण्डित होने का भय सबार रहता है, और चोरी का माल लेने वाला यह
है कि 'मैं तो व्यापार कर रहा है, चोरी कहाँ कर रहा हूं!' इस प्रकार के परिणाम व्रतसापेक्ष होने से अचौर्यव्रत तो भग नहीं होता; किन्तु अशत: पालन और अंशतः भंग होने से भंगाभंगरूप अतिचार लगता है । यह दूसरा अतिचार हुआ। शत्रुराजा के द्वारा निषिद्ध राज्य में जाना, राज्य की निश्चित की हुई सीमा या सेना के पड़ाव का उल्लंघन करना, निषिद्ध किये हुए शत्रुराज्य में जाना राज्यों की पारस्परिक गमनागमन को व्यवस्था का अतिक्रम करना, एक राज्य के निवासी का दूसरे राज्य में प्रवेश तथा दूसरे राज्य के निवासी का अन्यराज्य में प्रवेश करना स्वामी-अदत्त में शुमार है। शास्त्र में स्वामी-अदत्त, जीव-अदत्त, तीर्थकर-अवत्त और गुरु-अदत्त ये चार प्रकार के अदत्त (चौर्य) बताए हैं ; इनमें से यहां स्वामी-अदत्त नामक दोष लगता है । इस तरह राज्य के द्वारा निषेध होने पर भी दूसरे राज्य मे जाने पर चोर के समान दण्ड दिया जाता है। वस्तुतः राज्य की चोरीरूप दोष होने से यहां व्रतभंग होता है।
फिर भी दूसरे राज्य में अनुमति के बिना जाने वाले के मन में तो यही होता है कि मैं चोरी