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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश
या जासूमी के लिए नहीं, व्यापार के लिए गया हूं । इस भावना के कारण व्रतसापेक्षता होने से व्रतरक्षण की उपेक्षा नहीं होती ; तथापि लोकव्यवहार में वह चोर माना जाता है, राज्य द्वारा दण्डित होता है, इसलिए यहां तीसरा अतिचार लगता है : (४) तत्प्रतिरूपकक्रिया --अच्छी वस्तु में खराब मिला कर अच्छी वस्तु के भाव में बेचना, मिलावट करना ; बढ़िया वस्तु दिखा कर दूसरी घटिया वस्तु दे देना ।
कम्म के चावलों में हल्की किस्म के चावल मिला देना. घी में चर्वी. दूध में पानी, दवाइयों में खुड़ियामिट्टी, हींग में गोंद या खैर आदि का रस, तेल में मूत्र, शहद में चासनी, उत्तम सोने या चांदी मे दूसरी धातु मिला कर बेचना इत्यादि व्यवहार प्रतिरूपकक्रिया है। अपहरण की हुई गाय आदि के सीग को बदलने के लिए आग में पकाना या और किसी चीज के ऊपरी ढांचे को बदल देना, तलवार आदि के म्यान बदल कर रख देना तरबूज आदि फलों के भी पसीने से सींग और नीचे मुह बना कर रख लेना, ताकि मालिक न पहचान सके. इम तरकीब से इधर-उधर टेढ़ा करके स्वयं रख लेना या वेच देना तत्प्रतिरूपक व्यवहार नामक चौथा अतिचार है । (५) मानान्यत्व-जिससे कोई चीज नापी जाय, उसे मान कहते हैं । रत्ती पल, तोला, माशा, भार, मन, सेर (आजकल किलो), गज (मीटर) आदि बाट या गज आदि साधन कम तौल-नाप के रखना अथवा ग्राहक को सौदा देते समय तौल या नाप में गड़बड़ी करगा । अथवा अधिक तौल या नाप के बांट या गज आदि रख कर दूसरे से अधिक ले लेना। यह इस भावना से करना कि सिर्फ सेंध लगा कर या जेब काट कर दूसरे की चीज ले लना ही लोकप्रसिद्ध चोरी है, यह तो व्यापार की कला है, इस दृष्टि से व्रतरक्षा करने में प्रयत्नशील होने से उक्त दोनों अतिचार लगते हैं। अथवा चोर को सहायता आदि दे कर उक्त पांचों कार्य कराना; वैसे तो स्पष्टतः चोरी के रूप हैं, फिर भी ये कार्य असावधानी से, अज्ञानता या बेसमझी से या अनजाने हो जाय तो व्यवहार में अतिक्रम, व्यतिक्रम या अतिचाररूप दोष कहलाते हैं । राजा के नौकर आदि को ये अतिचार नहीं लगते, ऐसी बात नहीं है । पहले के दो अतिचार राजा के नौकर आदि को प्रायः लगते हैं । शत्र के (निषिद्ध) राज्य में जाना तीसरा अतिचार है, यह तब लगता है, जब कोई सामन्त राजा आदि या सरकारी नौकर अपने स्वामी (राजा) के यहां नौकरी करता हुआ या उसके मातहत रहता हुआ उसके विरोधी (चाहे वह राजा हो या और कोई) की सहायता करता है, तब यह अतिचार लगता है । नापतोल में परिवर्तन तथा प्रतिरूपक्रिया (हेराफेरी), ये दो अतिचार पृथक्-पृथक् है : राजा भी अपने खजाने के नापतौल में परिवर्तन करावे या वस्तु में हेराफेरी करावे; तब उसे भी ये अतिचार लगते हैं। इस प्रकार अस्तेय-अणुव्रत के ये पांच अतिचार हुए। अब चौथे अणुव्रत के पांच अतिचार बताते हैं -
इत्वरात्तागमोऽनात्तागतिरन्यविवाहनम् ।
म. नात्याग्रहोऽनंगक्रीड़ा च ब्रह्मणि स्मृताः ॥१३॥ अर्थ-(१) कुछ अर्से के लिए रखी हुई परस्त्री (रखल) या वेश्या से संगम करना, (२) जिसके साथ विवाह नहीं हुआ है, ऐसी स्त्री से सहवास करना ; (३) अपने पुत्रादि कुटुम्बोजन के अतिरिक्त लोगों के विवाह कराना अथवा अपनी स्त्री में संतुष्ट न हो कर उसकी अनुमति के बिना तीवविषयाभिलाषावश दूसरी स्त्री से शादी कर लेना, (४) कामकीड़ा में तीन अभिलाषा रखना और (५) अनंगक्रीड़ा करना; ये चौथे ब्रह्मचर्याणुव्रत के ५ अतिचार कहे हैं।