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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश व्याख्या-एक मुहूर्त यानी दो घड़ी समय तक, समता अर्थात् राग-द्वेष पैदा होने के कारणों में मध्यस्थ रहना, सामायिकवत है। सामायिकशब्द को व्युत्पति करके उसका अर्थ करते हैं 'सम' अर्थात् रागदप से रहित होना और आय अर्थात् ज्ञानादि का लाभ । यानी प्रशमसुखरूप अनुभव । बही सम+आय - समाय ही सामायिक है । व्याकरण के नियम से यहां इकण प्रत्यय लगा है । अतः समाय+ इकण प्रत्यय लग कर सामायिक रूप बना है। वह सामायिक मन, वचन और काया की सदोष चेष्टा (व्यापार) का त्याग किये बिना नही हो सकती, इसलिये श्लोक में आतंरौद्रध्यान त्याग को सामायिक कहा है । पापकारी व्यापार का त्याग भी सामायिक है और सावध वाचिक ओर कायिक कार्यों का त्याग करने वाले की समता को भी सामायिक कहते हैं । सामायिक में रहा आ गहस्थ श्रावक भी साधु के समान होता है । कहा है-- "सामाइयमि उ कए समणो इव सावओ" अर्थात् मामायिक कर लेने पर धावक साधु जैसा बन जाता है। इस कारण श्रावक को अनेक बार सामा करना चाहिए । और इसी कारण सामायिक में देवस्नात्र-पूजा आदि का विधान नहीं है।
यहाँ शंका होती है कि. देवपूजा, स्नात्र आदि तो धर्मकार्य हैं। इन्हें सामायिक में करने से क्या दोष लगता है ? सामायिक मे तो मावद्यव्यापार का त्याग किया जाता है और निरवद्य व्यापार का स्वीकार किया जाता है। इस दृष्टि मे सामायिक में स्वाध्याय करना, पाठ का दोहराना इत्यादि के ममान देव-पूजा आदि करने में कौन मा-दोप है ? इसका समाधान करते हुए कहते हैं..- 'ऐसा कहना ठीक नहीं है । साधु के समान सामायिक में रहे हुए श्रावक को देव-स्नात्रपूजादि करने का अधिकार नहीं है । द्रव्यपूजा के लिए भावपूजा कारणरूप है, इसलिए श्रावक सामायिक में हो तब, भावस्तव से प्राप्त हो जाने वाली वस्तु के लिए द्रव्यस्तव का प्रयोजन नहीं रहता । कहा है नि: 'द्रव्य पूजा और भावपूजा इन दोनों में द्रव्यपूजा बहुत गुणों वाली है ;' यह अजानी मनुष्य के ववन है ; ऐमा पड़जीवनिकायों के हितैषी श्रीजिनेश्वर भगवान् ने कहा है। सामायिक करने वाले श्रावक दो प्रकार के होते हैं-ऋद्धि वाले और ऋद्धिरहित । चार जगहों पर मामायिक की जाती है-जिनमन्दिर में, साधु के पास, पौषधशाला में और अपने घर में शान्न, एकान्त स्थान या व्यापार-रहिन स्थान में। उमकी विधि यह है-अगर किसी मे भय न हो, किमी के माथ विवाद या कलह न हो या किसी का कर्जदार न हो, किमी निमित्त पर बोलाचाली, खींचातानी या चिन में संक्लेश न हो; ऐसो दशा में अपने घर पर भी सामायिक करने ईयासमिनि का शोधन करना हुआ, सावद्य-भाषा का त्याग करना हुआ, लकड़ी, दला आदि किसी वस्तु की जरूरत हो तो उसके मालिक की आज्ञा लेता है। आंख से भलीभांति देख कर प्रतिलेखना करके और प्रमानिका से प्रमार्जन करके ग्रहण करता है। यूक, कफ, नाक का मैल व लघुनीति आदि का वह यतनापूर्वक त्याग करता है । शान अन्ती नन्ह देख कर, जमीन का प्रमार्जन करता है। इस तरह यतनापूर्वक, पांच समिति तीन गुप्ति का पान सा है। यदि साधु हो तो, पाश्रय मे जा कर वह उन्हें वंदना करके निम्नलिखित पाठ से सामायिक स्वीकार करता है -
सामायिक सूत्र-करेमि भंते : सामाइयं सावज्ज जोगं पच्चक्खामि, जाव साहू पण्जुवासामि दुविहं तिविहेणं मणेण वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि, तस्स मंतं पडिक्कमामि निवामि गिरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥
यहां सामायिक-सूत्र का अर्थ बताते हैं-'करेमि' अर्थात मैं स्वीकार करता हूँ 'भंते-यह गुरुमहाराज को आमंत्रण है. 'हे भदंत ! भदत का अर्थ सुख वाले और कल्याण वाले होता है। भदुधातु सुख और कल्याण के अर्थ में है, इसके अन्त में 'औ दिक' सूत्र से 'अन्त प्रत्यय लगने से भदन्त-रूप बना है।