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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश
द्रव्य - देय द्रव्य-पदार्थ वही शुद्ध कहलाता है, जो प्रासुक, अचित्त, साघु के लिए कल्पनीय एवं एषणीय हो; साधुवर्ग के लिए जो धर्मोपकरण के रूप में शास्त्र में विहित है या जो खाद्यपदार्थ साधु के लिए ग्राह्य है ।
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विधि - भिक्षा देने की विधि भी निर्दोष होनी चाहिए, साधुवर्ग की अपनी आचारमर्यादा के अनुरूप उन्हें आहारादि के ४२ दोषों से रहित भिक्षा दी जाए, तभी संयमपोषक और सर्वसंपत्कारी भिक्षा हो सकती है । अन्यथा गलत विधि से दी गई या ली गई भिक्षा तो भिक्षु की तेजस्विता को ही समाप्त कर देती है ।
वही भाग्यशाली धन्य है जो साधुवर्ग का सम्मान करता है, अशन, पान, खादिम स्वादिम रूप समग्र आहारसामग्री; उनके संयम के लिए हितकर वस्त्र, पात्र, कम्बल, आसन; निवास के लिए स्थान, पट्टे, चौकी, आदि संयमवृद्धि के साधन अत्यन्त प्रीतिपूर्वक साधुसाध्वियों को देता है । जिनेन्द्र भगवान् के आज्ञापालक सुश्रावकों को चाहिए कि वे साधुसाध्वियों को उनके लिए कल्पनीय, एषणीय, निर्दोष वस्तु में यथोचित मात्रा में दें। और उन्हें दी हुई वस्तु कदापि अपने कार्य में इस्तेमाल न करे । अपने रहने के लिए स्थान, आसन, शय्या, आहार- पानी, औषध, वस्त्र ; पात्र आदि उपकरण प्रचुर मात्रा में हों, तो उनमें से स्वल्पमात्रा में ही सही, साधुसाध्वियों को देने चाहिए । वाचकमुख्य श्रीउमास्वातिजी म० प्रशमरति प्रकरण गाथा १४५-१४६ में कहते हैं- 'निर्दोष, शुद्ध एवं कल्पनीय आहार, शय्या, वस्त्र, पात्र और औषध आदि कोई भी वस्तु कारणवश अकल्पनीय भी हो जाती है और जो अकल्पनीय है, वह कारणवश कल्पनीय भी हो जाती है । देश, काल, पुरुष, परिस्थिति, उपघाता ( उपभोक्ता) और शुद्धपरिणाम को ले कर कोई वस्तु कल्पनीय हो जाती है और कोई अकल्पनीय हो जाती है । एकान्तरूप से कोई भी वस्तु कल्प्य या अकल्प्य नहीं होती ।"
यहाँ शंका होती है कि शास्त्र में आहार दाता का नाम तो प्रसिद्ध है, सुना भी जाता है. परन्तु वस्त्रादि-दाता का नाम न प्रसिद्ध है, न सुना ही जाता है, तो वस्त्रादि देना कैसे उचित है ? इसका समाधान करते हुए कहते हैं- "यह कहना यथार्थ नहीं है । श्री भगवतीसूत्र आदि में वस्त्रादि का दान देना स्पष्टतः बताया गया है। वह पाठ इस प्रकार है - "समने णिग्गंथे फासुएणं एसणिज्जेणं असण-पाण- खाइम – साइमेणं, वत्य परिग्गह-कंबल-पायपु छणेणं पीढफलग-सेज्जासंबारएण पडिलामेमाणे बिहरद्द ।' अर्थात् — श्रमणोपासक गृहस्थ श्रमणनिग्रन्थों को अचित्त ( प्रासुक), एषणीय ( निर्दोष) अशन, पान, खाद्य और स्वाद्यरूप चार प्रकार का आहार- पानी, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, पट्टा. चौकी, शय्या, संस्तारक (बिछौना) आदि दान दे कर लाभ लेता हुआ जीवनयापन करता है। इसलिए बहारपानी की तरह संयम के आधारभूत, शरीर के उपकारक वस्त्र आदि साधु को देने चाहिये । घास ग्रहण करने (मरने) के लिए, अग्निसेवन के निवारणार्थं ( आग तापने की ऐवज में ), धर्मध्यान शुक्लध्यान की साधना के लिए, ग्लान साधु की पीड़ा निवारणार्थ, मृत साधु को परिठाने के लिए; इत्यादि संयमपालन में वस्त्र सहायक- उपकारक है। यही बात अन्यत्र भी कही है । वाचकवर्य श्रीउमास्वाति ने भी कहा है - " वस्त्र के बिना ठंड, हवा, धूप, डांत, मच्छर आदि से व्याकुल साधक के सम्यक्त्व आदि में व सम्यक् ध्यान करने में विक्षेप होता है ।" ये और ऐसे ही कारणों से वस्त्र की तरह पात्र को भी उपयोगी
भी बताया है। भिक्षा के रूप में आहार लाने में से निकाल कर परिठाने में, जीवों से युक्त
आहार
अशुद्ध आहार आदि भिक्षा में आ जाय तो उसमें से होती जीवविराधना रोकने के लिए, असाव