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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश
व्याख्या- 'देखो' शब्द यहाँ भद्रजनों को दान के सम्मुख करने के लिए प्रयुक्त किया गया । संगम नामक पशुपालक ने मुनि को दान देने के प्रभाव से चमत्कृत कर देने वाली अद्भुत सम्पत्ति प्राप्त कर ली थी । यद्यपि संगम को परम्परा से मोक्षफल प्राप्त होता है, तथापि यहा प्रासंगिक फल का वर्णन होने से मोक्षफल का जिक्र नहीं किया । संगम का चरित्र सम्प्रदायपरम्परा से ज्ञातव्य है; वह इस प्रकार है
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श्रद्धापूर्वक सुपात्रदानदाता-संगम मगधदेश में अनेकविध रत्नों से देदीप्यमान, लक्ष्मी के कुलगृह-समान राजगृह नगर में उन दिनों इन्द्रशासन के समान विभिन्न राजाओं द्वारा मान्य सम्राट् श्रेणिक का शासन था । राजगृहप्रखण्ड में ही शालि नामक गाँव में छोटे-से परिवार वाली धन्या नाम की सम्पन्न महिला रहती थी । उस पर आफत आ पड़ने और प्रियजनों का वियोग हो जाने से वह अपने इकलोते पुत्र सगम को ले कर राजगृह आ गई । राजगृह में रहते हुए संगम कुछ नागरिकों के बछड़े चरा कर अपनी रोजी चलाता था । 'गरीब बालक के लिए यही अनुरूप और सात्त्विक आजीविका है ।' धन्या आसपास के धनिकों के यहाँ छोटा-मोटा गृहकार्य करके कुछ कमा लेती थी । यों मां-बेटा दोनों आनन्द से जीवन बिता रहे थे । एक बार किसी पर्वोत्सव के दिन सब के यहां खीर बनी देख कर बालक संगम ने भी अपनी मां से खीर मांगी । माता ने कहा - "बेटा ! हम अत्यन्त गरीब हैं, खीर हमारे यहाँ कहाँ से हो सकती है ?" पर बालक इस बात को न समझ कर खीर खाने के लिए मचल पड़ा । धन्या अपना पुराना वैभव और पुत्र के प्रति माता के दायित्व को याद करके सिसकियाँ भर कर जोर-जोर से रोने लगी। उसका हृदयविदारक करुण रुदन सुन कर पड़ोस की सम्पन्न घर की महिलाएँ दौड़ी हुई आई और उससे इस प्रकार रोने और दुःखित होने का कारण पूछा। पहले तो उसने संकोचवश स्पष्ट नहीं बताया, परन्तु बाद में भद्र महिलाओं के अत्याग्रह पर धन्या ने गद्गद् स्वर में अपनी आपबीती और अपना दुखड़ा कह सुनाया । उसके स्वाभिमान को ठेस न पहुंचे, इस दृष्टि से भद्रमहिलाओं ने मिल कर सम्मानपूर्वक उसे दूध, चावल, खांड आदि खीर बनाने की सब सामग्री दे दी । धन्या ने हर्षित होकर खीर बनाई और एक थाली में संगम के लिए परोस कर और ठंडी जाने पर खा लेने का कह कर किसी काम से वह चली गई । बालक थाली में खीर ठंडी कर रहा था, उसी समय संसारसमुद्र से तरने लिए नौका के समान एक मासिक ( एक महीने का तप करने वाले) उपवासी महामुनि पारणे के लिए भिक्षा लेने पधार गए। मुनि को देखते ही बालक संगम बड़ा प्रभावित हुआ। उसने सोचा- 'अहो ! यह तो सचेतन चिन्तामणिरत्न हैं, या जंगम कल्पवृक्ष हैं, अथवा पशु-वृत्ति से रहित कोई कामधेनु हैं ? मेरे ही भाग्य से आज यह सर्वश्रेष्ठ मुनि पधारे हैं ! नहीं तो मेरे जैसे दीन-हीन के यहाँ ऐसे उत्तमपात्र का आगमन भला कैसे हो सकता था ? मेरे किसी प्रबल पुण्योदय के फलस्रूप ही आज यह चित्त वृत्ति और पात्ररूप त्रिवेणीसंगम हुआ है ?" यों उत्कट विचार करके झटपट खीर की थाली उठा कर सारी की सारी मुनिवर के पात्र में उड़ल दी ! मुनिराज बस, बस करते रहे, लेकिन बालक ने वह अतिकठिनता से प्राप्त, दुर्लभ सारी खीर प्रबल भावना से उन तपस्वी मुनिराज को दे दी । महाकरुणाशील मुनि ने भी उपकारबुद्धि से अपने भिक्षापात्र ली और आहार ले कर चले गए । धन्या आसपास के घरों के आवश्यक काम निपटा कर जब घर लौटी और उसने देखा कि थाली साफ है, तो उसने उस थाली में और खीर परोसी, जिसे संगम
झटपट खा गया । धन्या को यह पता नहीं था कि संगम ने वह खीर जाने से संगम को रात में अजीर्ण और पेट में जोर का दर्द हो गया,
मुनि को दे दी है। गर्मागर्म खीर खा फलतः मुनि को दान देने का स्मरण