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प्रथम अणुव्रत के पांच अतिचारों पर विवेचन
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'सभी अतिचार संज्वलनकषाय के उदय से होते हैं।' यह बात यथार्थ है, परन्तु वह सर्वविरतिचारित्र की अपेक्षा से कही है ; न कि सम्यक्त्व और देशविरतिचारित्र की अपेक्षा से । चूकि सभी अतिचार संज्वलन के उदय से होते हैं, इत्यादि गाथा में ऐसी व्याख्या है कि संज्वलन-कषाय के उदय में सर्वविरतिचारित्र में अतिचार लगते हैं, शेष १२ कपायों के उदय में तो सर्वविरति के मूलव्रत का ही छेदन होता है। इस दृष्टि से देशविरतिचारित्र में अतिचार का अभाव नहीं है । अत. प्रथम व्रत के जो अतिचार बताए हैं, उन्हें कहते हैं
क्रोधाद् बन्ध-छविच्छेदोऽतिभाराधिरोपणम् ।
प्रहारोऽन्नादिरोधश्चाहिंसायाः परिकीर्तिताः ॥१०॥ अर्थ (१) क्रोधपूर्वक किसी जीव को बांधना, (२) उसके अंग काट देना, (३) उसके बलबते से अधिक बोझ लाद देना, (४) उसे चाबुक आदि से बिना कसूर ही मारना, पोटना, और (५) उसका खाना-पाना बन्द कर देना, ये पांच अतिचार अहिंसाणुव्रत के बताये गये हैं।
व्याख्या- अहिंसारूप प्रथम अणुव्रत के ये पांच अतिचार हैं-गाय, भैंस आदि पशु को रस्सी आदि से इतना कस कर बांध देना कि खुल न सके, उसे हमेशा के लिए बांध कर नियंत्रण करना। परन्तु अपने पुत्र आदि को हितशिक्षा की दृष्टि से या उद्दण्डता रोकने की दृष्टि से बंधन आदि में बांधना पड़े तो. वह अतिचार नहीं है, क्योंकि मूल श्लोक में 'क्रोधात्' शब्द पड़ा है, वह यही सूचित करता है कि अत्यन्त प्रबलकपाय के उदय से जो बंधन डाला जाय, वह प्रथम अतिचार है। पुत्र आदि के पैर में या कहीं रसौली की गांठ या कोई फोड़ा हो गया हो और उसे कटवाना पड़े, नश्तर लगवाना पड़े या चमडी
उसे अतिचार नहीं कह सकते ; क्योंकि उसके पीछे दर्द मिटाने की हितषिता होती है, क्रोध-द्वेषादि नहीं होता। इस कारण 'क्रोधात्' शब्द प्रत्येक अतिचार के साथ समझ लेना चाहिए । अतः क्रोध या द्वेषवश किमी का अंग या चमड़ी आदि काट लेना या सिर आदि फोड़ देना द्वितीय अतिचार है। गाय, बैल. ऊंट, गधा, मनुष्य आदि किसी के भी कंधे, पीठ या सिर पर अथवा गाड़ी या गाड़ों में ढोया न जा सके, इतना बलबूते से ज्यादा बोझ लाद देना, तीसरा अतिचार है । क्रोध या द्वषवश लाठी, डंडा, चाबुक या किसी हथियार अथवा चाकू, छुरा आदि से किसी भी निरपराध जानवर या मनुष्य को मारना-पीटना, लोहे का आरा भोंक देना, ढले, पत्थर आदि से मारना इत्यादि चौथे अतिचार के अन्तर्गत है। इसी प्रकार क्रोध, द्वेप आदि से किसी पशु या मनुष्य को अन्न-पानी या घास-चारा न देना पांचवां अतिचार है । इस विषय में आवश्यकचूणि में विधि बताई गई है - बन्धन दोपाये मनुष्य का तथा चौपाये पशु का होता है। लेकिन वह भी सार्थक और निरर्थक दो प्रकार का है। निरर्थक बन्धन तो कथमपि उचित नहीं है; सार्थक बन्धन भी दो प्रकार का है.-सापेक्ष और निरपेक्ष । निरपेक्ष बन्धन त्याज्य है।
सापेक्षबन्धन वह है, जिसके अन्तर्गत कषायादिवश बन्धन नहीं होता; किन्तु निरपराध को रस्सी आदि से बाधना भी पड़े तो गांठ मजबूत न लगाए, ढीली-सी गांठ लगाए ; ताकि समय आने पर झटपट और आसानी से खोली या काटी जा सके । निरपेक्ष उसे कहते हैं जो गांठ अत्यन्त कस कर मजबूती से लगाई गई हो, ताकि वह माफन के समय खोली न जा सके । कई बार गांठ इनकी मजबूती से लगा दी जाती है कि आग लगने पर भी बेचारा पशु उसे तोड़ कर भाग नहीं सकता, वहीं जल मरता है।