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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश आत्माओं को अपने अंग को काट डालने पर जरा भी व्यथा नहीं होती। देव ने देखा कि यह मेरे प्रयोग मे जरा भी विचलित न हुआ, तब उसने दूसरा दाव फेंका । देव ने धमकी देते हुए कहा- 'देख ! अब भी मान जा, मेरी वात, और छोड दे इस धर्म के पाखंड को ! क्या धरा है इस प्रकार व्यर्थ कष्ट सहने में ? इतने पर भी अगर तू यह व्रत नहीं छोड़ेगा तो फिर मैं तेरे मझले पुत्र को भी तेरे बड़े पुत्र की तरह खत्म कर दंगा।" यों कह कर पहले की तरह मझले पुत्र को भी काटा और बार-बार उसके सम्मुख कर अट्टहास्य करने लगा, मगर इससे भी चुलनीपिता क्षुब्ध नहीं हुआ। फिर दात किटकिटाते हुए देव ने अपने वाक्य दोहराए और जमके छोटे पुत्र को भी तलवार से उड़ा दि । किन्तु फिर भी अविचल देख कर देव का क्रोध दुगुना हो गया । देव ने फिर चुनौती देते हुए कहा- 'अरे धर्म के ढोंगी ! अब भी तू अपना पाखंड नहीं छोड़ेगा तो देख ले ! तेरे सामने ही तेरी माता की भी वही गति करूगा।" फिर उसने चुलनांपिता की माता भद्रा की-सी हूबहू प्रतिकृति बना ।र रुग्णदणा से पीड़ित, दीन-हीन, मन्निनमुखी रोती हुई करुण दिरनी के समान उसे बताते हुए कहा :म वन को तिलांजलि दे दे ! यह व्रत तेरे परिवार के प्राणना, का परवाना ले कर आया है ! क्या तुनना भी नहीं ममझता कि तेरे तीनों पुत्रों को मैंने तेरे देखते ही देखने मौत के मुह में झोंक दिये। इतने पर भी तू अपना हठ नहीं छोड़ेगा तो तेरे कुल की आधारभन देवगुम्समान तेरी जननी को मार 7 उमका मांस भुन कर और पका कर चट कर जाऊंगा। यह मेरी अन्तिम चेतावनी है ।" परन्तु इतने पर भी चुलनीपिता को भयविहल न देख कर देवता ने भद्रा को उमकी चोटी पकड कर घसीटा और जैसे कालखाने में कमाई को छुग हाथ में लिए सामने देख कर बार। कम्पित हो कर जोर-जोर चिल्लाने लगता है, वैसे ही ऐमा दृश्य दिखाया कि माता भद्रा के सामने तलवार ले कर मारने को उद्यत हो रहा है. और माता भद्रा हृदयविदारक करुण रुदन एवं चिन्कार कर रही है । इस दयनीय दृश्य के साथ ही देव ने फिर चुलनीपिता से कहा-"ओ स्वार्थी पेटू ! आनी माता की हालत तो देख ! जिगने नृझे जन्म दिया है, अपने उदर में रख कर तेरा भार सहा है। वह मो, आज मागे जा रही है और तू स्वार्थी बन कर बैठा है !" इस पर चुलनीपिता ने मन ही मन मांचा. - यह परमाधार्मिक असर के गमान कोई दुर' मा है, जो मेरे तीन पुत्रों को तो मार कर चट कर गया है और अब मेरी माता को भी कसाई के समान मारने पर तुला है । अत: अच्छा तो यह है कि इमा. माग्ने में पहले ही मैं अपनी मां को बचा लू" :स विचार से पोपध से चलित हो कर चुलनीपता को पकड़ने के लिए उठा और जोर से गजना को । यह देखते ही देव महाशब्द करता हुआ अदृश्य हो कर आकाश में उड़ गया। उम देवता के जाते ही वहाँ सन्नाटा था । परन्तु उग कोलाहल को सुन कर मटा माना तुरंत दौड़ी हुई कहाँ आई और पूछने लगी"बेटा ! क्या बात थी ? इस प्रकार जोर और गमों चिल्ला रहे थे ?' चुलनापिता ने मारी घटना कह सुनाई । मुन कर भद्रामाता ने कहा - 'पुर ! यह तो देवमाया थी ! कोई मिश्याष्टिदेव झूठमूठ भय दिखा कर तेरे पौषधद्रत को भंग करने आया । वह अपने काम में सफल हो गया है। अत. तू पौषधव्रत-भंग होने की आलोचना करके प्रायश्चित्त ले कर शुद्ध हो जा। तभंग होने की आलोचना नहीं की जाती तो अतिचार से व्रत मलिन हो जाता है।" नव निर्मलमति अनःग्रही चलनीपिता ने माता के वचन शिरोधार्य किये और व्रतभग के दोप की आलोचना करके शुद्धि की। फिर स्वर्ग के महल के सोपान पर चढ़ने की तरह क्रमशः ग्यारह श्रावक प्रतिमाएं स्वीकार की । और भगवान् के वचनानुमार अखण्ड तीक्ष्णधारा के समान दीर्घ काल तक कठोररूप में उन ११ प्रतिमाओं की आराधना की। तत्पश्चात् बुद्धिशाली श्रावक ने सलेखनापूर्वक आजीवन अनशन कर लिया, जिसका उसने आराधनाविधिपूर्वक पालन किया