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अर्थ
दिव्य ( सात्विक ) भोज्य पदार्थों के होते हुए भी जो मांस खाते हैं, वे सुधारस को छोड़ कर हलाहल जहर खाते हैं।
व्याख्या
योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश
समस्त धातुओं को पुष्ट करने वाला, सर्वेन्द्रिय-प्रीतिकारक दूध, खीर, खोआ, बर्फी, पेड़ा, श्रीखंड, दही, मोदक मालपूआ, घंवर, तिलपट्टी, बड़ी पूरणपोली, बड़े, पापड़, ईख, शक्कर, किशमिश, बादाम, अखरोट, काजू, आम, केला, कटहल, दाड़िम, नारंगी, चीकू, टमाटर, खजूर, खिरनी, अंगूर आदि अनेक दिव्य खाद्यपदार्थ होते हुए भी उन्हें ठुकरा कर जो मूर्ख बदबूदार, घिनौने, देखने में खराब, वमनकारक, सूअर आदि का मांस खाता है, वह वास्तव में जीवनरसवर्द्धक अमृतरस को छोड़ कर जीवन का अन्त करने वाले हलाहल जहर का पान करता है। छोटा-सा बालक भी इतना विवेकी होता है। कि वह पत्थर को छोड़ कर सोने को ग्रहण कर लेता है। मांसभक्षण करने वाले तो उस बालक से भी बढ़कर अविवेकी और नादान हैं ।
प्रकारान्तर से मांसभक्षण के दोष बतलाते हैं
न धर्मो निर्दयस्यास्ति, पलादस्य कुतो दया । पललुब्धो न तद्वेत्ति, विद्याद् वोपदिशेनहि ॥ २९ ॥ अर्थ
निर्दय व्यक्ति के कोई धर्म नहीं होता, मांस खाने वालों में दया कहाँ से हो सकती है ? क्योंकि मांसलोलुप व्यक्ति धर्म को तो जानता ही नहीं। अगर जानता है तो उस प्रकार के धर्म का उपदेश नहीं देता ।
व्याख्या धर्म का मूल दवा है । इसलिए दया के बिना धर्म हो नहीं सकता। मांस खाने वाला जीव हिसा करता है, इस कारण उसमें दया नहीं होती । अतः उसमें अघर्मत्व नामक दोष लागू होता है ! यहाँ प्रश्न होता है - " चेतनायुक्त पुरुष अपनी आत्मा में धर्म के अभाव को कैसे सहन कर सकता है ? इसके उत्तर में कहते हैं- मांसलोलुप व्यक्ति को दया या धर्म किसी भी बात का भान नहीं होता । कदाचित् उसे इस बात का ज्ञान भी हो तो भी वह मांस छोड़ नहीं सकता। वह मन में यों ही सोचा करता है - 'सभी मेरे समान मांसाहारी हों; अजिनक की तरह अपनी आदत का चेप दूसरों को लगाने वाला व्यक्ति दूसरों को मांसत्याग का उपदेश दे नहीं सकता है ? सुनते हैं, अजिनक नाम का एक पथिक कहीं जा रहा था कि रास्ते में अचानक एक सर्पिणी ने उसे डस लिया । उसने सोचा कि यह मेरी तरह दूसरे को भी उसे, इस लिहाज से उसने किसी भी पथिक से नहीं कहा कि इस रास्ते में सर्पिणी डस जाती है । फलतः दूसरे अनजान पथिक को उसी सर्पिणी ने डसा । उसने भी किसी से नहीं कहा । फलतः तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे और सातवें आदमी को भी क्रमशः उसी सर्पिणी ने डसा । इसी तरह मांसभोजी भी मांसाहार के पाप से स्वयं तो नरक में जाता ही है, दूसरों को भी नरक में ले जाता है । 'दुरात्मा स्वयं नष्ट होता है, दूसरे का भी नाश करता है।' इस दृष्टि से वह दूसरों को उपदेश दे कर मांसाहार से रोकता नहीं ।