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त्याज्य सूक्ष्मजीवसंसक्त भोजन एवं चार प्रकार का अनर्थदण्ड
२७१ जन्तुमिश्र फलं, पुष्पं, पत्रं चान्यदपि त्यजेत् ।
सन्धानमपि संसक्तं जिनधर्मपरायणः ॥७२॥ अर्थ- जिनधर्म में तत्पर श्रावक दूसरे जीवों से मिश्रित या संसक्त फल (वेर आदि), फूल, पत्ते, अचार या और भी ऐसे पदार्थ का त्याग करे।
व्याख्या-वस जीवों से युक्त मधूक (महुड़ा) आदि फल ; अरणि, सरसों, महुआ आदि के फूल, चौलाई आदि की भाजी के पत्ते तथा दूसरे भी कन्द या मूल (जड़) आदि का त्याग करना चाहिए । आम, नींबू आदि का अचार (अथाणा) नीलण-फूलण या अन्य जीवों से संयुक्त हो तो उनका भी त्याग कर देना चाहिए । क्योंकि जीवदया पालन करने वाले श्रावक, जिससे जीवहिंसा हो, ऐसा अभक्ष्य भोजन नहीं करते । भोगोपभोग का कारण धनोपार्जन भी उपचार से भोगीपभोग कहलाता है। उसका परिमाण भी इसी व्रत के अन्तर्गत आ जाता है । इस दृष्टि से थावक को खरकों (जिसमें सवध, अतिवष, प्रमादवृद्धि, असंयमवृद्धि, लोकनिन्द्य एवं सत्पुरुषों द्वारा अनुपसेव्य हों, ऐसे निपिद्ध निकृष्ट व्यवसायों) का त्याग करके निर्दोप एवं अनिन्द्य व्यवसाय द्वारा अपनी आजीविका चलानी चाहिए। यह सब बातें अतिचार के प्रसंग में बतायेंगे । इस प्रकार भोगोपभोगपरिमाणवत का वर्णन पूर्ण हुआ !
___ अब क्रम से अनर्थदण्डविरमणव्रत के वर्णन करने का अवसर प्राप्त है। अतः दो श्लोकों में अनर्थ दण्ड के चार प्रकार बताते हैं
आर्तरौद्रमयध्यानं, पापकर्मोपदेशिता । हिंसोपकारि दानं च, प्रमादाचरणं तथा ॥७३॥ शरीराद्यर्थदण्ढस्य प्रतिपक्षतया स्थितः ।।
योऽनर्थदण्डस्तत्त्यागस्तृतीयं तु गुणवतम् ॥७४॥ अर्थ -आत-रौद्रध्यानरूप अपध्यान करना, पापजनक कार्य का उपदेश या प्रेरणा देना, हिंसा के साधन दूसरों को देना, प्रमादाचरण करना; यह चार प्रकार का अनर्थदण्ड कहलाता है। शरीर आदि के लिए जो आरम्भ या सावध प्रवृत्ति अनिवार्यरूप से करनी पड़े। वह अर्थदण्ड है; लेकिन जिसमें अपना या पराया किसी का भी सिवाय हानि के कोई लाम नहीं, जिस पाप से अकारण ही आत्मा दण्डित हो, वह अनर्थदण्ड है। उसका त्याग करना ही तीसरा गुणवत कहलाता है।
व्याख्या-बुरा ध्यान करना अनर्थदण्ड का प्रथम प्रकार है। उसके दो भेद हैं-आर्तध्यान और रौद्र-ध्यान ।
आर्तध्यान-ऋत । अर्थात् दुःख से उत्पन्न होने वाला आर्त कहलाता है, अथवा आनि यानी पीड़ा या यातना, उससे होने वाला ध्यान आर्तध्यान है। इसके ४ प्रकार हैं-(१) अप्रिय शब्द आदि विषयों का संयोग होने पर राग से मलिन जीव द्वारा उसके अत्यन्त वियोग की चिन्ता करना; साथ ही उसका फिर संयोग न हो, इस प्रकार का विचार करना । (२) पेट में शूल (पीड़ा), मस्तक में वेदना या शरीर के किसी अंग में पीड़ा होने पर हायतोबा मचाना, छटपटाना, उसके वियोग के सम्बन्ध में बारबार तीव्रता से चिन्तन करना । उसका पुनः संयोग न हो, इसकी चिन्ता करना तथा उसके प्रतीकार के लिए चित्त व्याकुल हो जाना । (३) ईष्ट-शब्दादि विषयों तथा सातावेदनीय के कारण बनुकूल विषय