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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश इसी स्मृति के ४० वें श्लोक में कहा है
नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित् । न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ॥२२॥
अर्थ
प्राणियों का वध किये बिना मांस कहीं प्राप्त या उत्पन्न नहीं होता और न ही प्राणिवध जीवों को अत्यन्त दु: वेने वाला होने के कारण स्वर्ग देने वाला है ; अपितु वह नरक के दुःख का कारणरूप है। ऐसा सोच कर मांस का सर्वथा त्याग करना चाहिये।
व्याख्या मांस खाने वालों के विना प्राणिवध आदि नहीं होता। इस कारण, मांस खाने वाला अधिक पापी है । 'अपने जीवन के लिए, जो अपने मांस (शरीर) की पुष्टि के लिए तो दूसरे का मांस खाता है, वही तो घातक है, खाने वालों को मांस मुहैया करने के लिए जीववध करने वाला, या बेचने वाला, पकाने वाला आदि घातक कैसे कहे जा सकते हैं ?' इस कथन के उत्तर में युक्तिपूर्वक कहते हैं-खाने वालों के बिना वध करने वाला वध नहीं करता । इस दृष्टि से मांसभक्षक को बध करने वाले आदि से बढ़कर बड़ा पापी कहा गया है। क्योंकि मांसभोजन से अपने मांस को पुष्ट करने वाला, अपनी जिह्वातृप्ति करने वाला, मांस पर क्षणिक जीवन चलाने वाला, दूसरे कितने ही प्राणियों के प्राणहरण करता है। कहा भी है-'दूसरे जीवों को मार कर जो अपने को प्राणवान बनाता है, वह थोड़े ही दिनों में अपनी आत्मा का विनाश कर लेता है। और अपने एक अल्पजीवन के लिए बहुत से जीवसमूह को मार कर दुःख का भागी बनाता है ; क्या वह यह समझता है कि मेरा जीवन अजर-अमर रहेगा? इसी बात को भर्त्सनासहित कहते हैं
मिष्टान्नान्यपि विष्टासावमतान्यपि मूत्रसात् । रास्मन्नङ्ग कस्याऽस्य कृते कः पापमाचरेत् ॥२४
अर्थ जिस शरीर में चावल, मूग, उड़द, गेहूं आदि का स्वादिष्ट भोजन ; यहाँ तक कि विविध प्रकार के मिष्टान्न भी आखिर विष्टारूप बन जाते हैं और दूध आदि अमृतोपम सुन्दर पेयपदार्थ भी मूत्ररूप बन जाते हैं । अतः इस अशुचिमय (गंदे घिनौने) शरीर के लिए कौन ऐसा समझदार मनुष्य होगा, जो हिंसा आदि पापाचरण करेगा ? मांसभक्षण में दोष नहीं है, ऐसा कहने वालों का खण्डन करते हैं
मांसाशने न दोषोऽस्तो? च्यते यैर्दुरात्मभिः । व्याध-गन-वृकव्याघ्रशृगालास्तैर्गुरुकृताः ॥२५॥
अर्थ मांसभक्षण में कोई दोष नहीं है, ऐसा बो दुरात्मा कहते हैं, उन्होंने पारधी (बहेलिया), गीध, भेडिया, बाघ, सियार आदि को गुरु बनाया होगा!