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मनुस्मृति आदि में भी मांसत्यागवर्णन और मांसमोजी की दुर्दशा
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व्याख्या __'जो दुरात्मा स्वाभाविक रूप से कहते हैं कि' 'मांस खाने में कोई दोष नहीं है।' जैसे कि कहा है-मांसभक्षण करने में, शराब पीने में, मथुनसेवन में कोई दोष नहीं है, यह तो जीव की प्रवृत्ति है, जो उसकी निवृत्ति करते हैं, वे महाफलसम्पन्न हैं । इस प्रकार का कथन करने वालों ने सचमुच शिकारी, गोध, जंगली कुत्ता, शृगाल, आदि को गुरु बनाया होगा ; अर्थात् उनसे उपदेश लिया होगा। व्याघ्र आदि गुरु के बिना और कोई इस प्रकार की शिक्षा या उपदेश के नहीं सकते । महाजनों के पूज्य तो ऐसा उपदेश देते नहीं। वे तो कहते हैं -निवृत्ति महाफला है, प्रवृत्ति तो दोषयुक्त है । 'प्रवृत्ति दोषयुक्त नहीं होती', इस वचन का तो वह स्वयंमेव विरोध करता है। इस विषय में अधिक क्या कहें ? अब ऊपर बताये हुए (मनुस्मृति अ० ५ श्लो: ५५) से भी मांस त्याज्य है, इसे बताते हैं
मां स भक्षयितामुत्र, यस्य मांसमि .दभ्यहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वं, निरुक्तं मनुरब्रवीत् ॥२६॥ अर्थ
। मन ने भी मांसशब्द को इसी प्रकार (निरुक्त किया) व्युत्पत्ति को है-मां स= जिसका मांस में इस जन्म में खाता हूं, स अर्थात् वह, मां'मुझे पर (अगले) जन्म में खाएगा; यही मांस का मांसत्व है। अब मांसाहार में महादोष का वर्णन करते हैं---
मांसास्वादनलुब्धस्य, देहिन देहिनं प्रति । हन्तुं प्रवर्तते बुद्धिः, शाकिन्या इव दुधियः ॥२७॥
अर्थ मांस के आस्वादन में लोलुप बने हुए दुर्बुद्धि मनुष्य को बुद्धि शाकिनी की तरह जिस किसी जीव को देखा, उसे ही मारने में प्रवृत हो जाती है।
व्याख्या जिस प्रकार शाकिनी जिस-जिस पुरुष, स्त्री, या अन्य जीव को देखती है, उसकी बुद्धि उसे मारने की होती है, उसी प्रकार मांस के स्वाद में लुब्ध बना हुमा कुबुद्धि मनुष्य मछली आदि जलचर; हिरन, सूअर, बकरा आदि स्थलचर; तीतर, बटेर आदि खेचर ; अथवा चूहा, सांप आदि उरपरिसर्प को भी मार डालने की बुद्धि होती है । यानी उस दुर्बुद्धि की बुद्धि मारने आदि बुरे काम में ही दौड़ती है, अच्छे कार्यों में नहीं दौड़ती । वह खाने लायक उत्तमोत्तम पदार्थों को छोड़ कर मांस, रक्त, चर्बी, बादि गदी रही चीजों को खाने में ही लगती है। इसी बात को कहते हैं
ये भक्षयन्ति पिशितं, दिव्यभोज्येषु सत्स्वपि । सुधारसं पारत्या' भुञ्जते ते हलालम् ॥२८॥