________________
२५७
मांस से देवों और पितरों की पूजा करना भी अधर्म है अब मांसभक्षकों की मूर्खता बताते हैं
केचिन्मांसं महामा ।दश्नन्ति न परं स्वयम् । देवपित्रतिथिभ्योऽपि कल्पयन्ति यदूचिरे ॥३०॥
अर्थ कितने ही लोग महामूढ़ता से केवल स्वयं ही मांस खाते हों, इतना ही नहीं, बल्कि देव, पितर आदि पूर्वजों और अतिथि को भी कल्पना करके (पूजा आदि की दृष्टि से) मांस देते या चढ़ाते हैं। क्योंकि उनके मान्य शास्त्रों (मनुस्मृति अ. ५ श्लोक ३२) में उसे धर्म बता रखा है। वही प्रमाण उद्धत करते हैं
क्रीत्वा स्वयं वाऽप्युत्पाद्य, परोपहृतमेव वा। देवान् पितॄन् समभ्यर्य, खादन् मांसं न दुष्यति ॥३१॥
अर्थ स्वयं मांस खरीद कर, अथवा किसी जीव को मार कर स्वयं उत्पन्न करके, या दूसरों से (भेंट में प्राप्त करके उस मांस से देव और पितरों की पूजा करके (देवों और पितरों के चढ़ा कर) बाद में उस मांस को खाता है तो वह व्यक्ति मांसाहार के दोष से दूषित नहीं होता।
व्याख्या मांस की दूकान से खरीदे हुए मांस को देवपूजा किये बिना उपयोग में नहीं ले सकता। इसलिए कहा कि शिकार से, जाल से, या पक्षी को पकड़ने वाले बहेलिये से, मग या पक्षियों का मांस खरीद कर या स्वय हिंसादि करके मांस उत्पन्न कर, अथवा ब्राह्मण से मांग कर या फिर क्षत्रिय द्वारा शिकार करके दिया हो अथवा दूसरे ने भेट दिया हो; उस मांस से देवों और पितरों की पूजा कर लेने के बाद में खाए तो मांसभक्षण का दोष नहीं लगता। यह कथन कितना अज्ञानतापूर्ण है ! हमने पहले ही इस बात का खण्डन करके समझाया है कि प्राणियों के घात से उत्पन्न होने के कारण मांस को स्वयं खाना अनुचित है तो फिर उसे देवता को चढ़ाना तो और भी अनुचित है। क्योंकि देवताओं ने तो पूर्वसुकृत पुण्य के योग से धातुरहित बैंक्रिय शरीर धारण किया है, वे ग्रासाहारी (कोर लेकर आहार करने वाले) नहीं होते, तो फिर वे मांस कैसे खा सकते हैं ? जो मांस नहीं खाते हैं, उनके सामने मांस चढ़ाने की कल्पना करने से क्या लाभ ? यह तो अज्ञानता ही है । पितर आदि पूर्वज अपने-अपने सुकृत या दुष्कृत के अनुसार गति प्राप्त करते हैं, कर्मानुसार फल भोगते हैं, वे पुत्र आदि के सुकृत से तर नहीं सकते, पुत्र आदि के द्वारा किये गये सुकृत-पुण्य का फल उन्हें नहीं मिल सकता । आम के पेड़ को सींचने से नारियल या दूसरे पेड़ों में फल नहीं लग सकते । पूजनीय या आदरणीय अतिथि को नरक में ले जाने का कारणभूत मांस देना उनके व अपने लिए महान अधर्म का हेतु होता है। इस तरह की प्रवृत्ति महामूढ़ता से भरी हुई है। कदाचित् कोई कहे कि "श्रुतियों या स्मृतियों में ऐसा विधान (मांस खाना जायज) है, इसलिए उसमें शंका नहीं करना चाहिए और न उसका खण्डन ही करना चाहिए।" इसका निराकरण करते हुए कहते हैं-अप्रमाणिक श्रुति-वचनों पर श्रद्धा ही कैसे की जा सकती है ? जिस श्रुति
३