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रात्रिभोजनत्याग के सम्बन्ध में अन्य धर्मशास्त्रों व आयुर्वेदशास्त्र के मत
देवस्तु भुक्तं पूर्वाल्ले, मध्याह्न ऋषिभिस्तथा । अपराह्ने च पितृभिः सायाह्न दैत्यदानवैः ॥८॥ सन्ध्यायां यक्षरक्षोभिः सदा भुक्तं कुलोद्वह !
सर्ववेलां व्यतिक्रम्य रात्रौ भुक्तमभोजनम् ॥५९॥ अर्थ-दिन के पहले पहर में देव भोजन करते हैं, मध्याह्न (दोपहर) में ऋषि आहार करते हैं, अपराल (तृतीय प्रहर) में पितर भोजन करते हैं और सांयकाल (विकाल) में देत्यदानव खाते हैं ; दिन और रात के सन्धिकाल में यक्ष और राक्षस खाते हैं । इसलिए हे कुलनिर्वाहक युधिष्ठिर ! देवादि के भोजन के इन सभी समयों का उल्लघन करके रात्रि को भोजन करना निषिद्ध है।
पुराणों में कथित रात्रिभोजननिषेध के साथ संगति विठा कर अब आयुर्वेद से इस कथन की पुष्टि करते हैं
हृन्नाभिपद्मसंकोचः चण्डरोचिरपायतः ।
अतो नक्तं न भोक्तव्यं सूक्ष्मजीवादनादपि ॥६०॥ ___ अर्थ-सूर्य के अस्त हो जाने पर शरीरस्थित हृदयकमल और नाभिकमल सिकुड़ जाते हैं और उस भोजन के साथ सूक्ष्मजीव भी खाने में आ जाते हैं, इसलिए भी रात्रिभोजन नहीं करना चाहिए। दूसरे पक्षों के साथ समन्वय करके, अव अपने मत की सिद्धि करते हैं
संसजज्जीवसंघातं भुजाना निशिभोजनम् ।
राक्षसेभ्यो विशिष्यन्ते; मूढात्मानः कथं नु ते ?६१॥ अर्थ-जिस रात्रिभोजन के करने में अनेक जोवसमूह आ कर भोजन में गिर जाते हैं, उस रात्रिभोजन को करने वाले मूढ़ात्मा राक्षसों से बढ़ कर नहीं तो क्या हैं ?
जिनधर्म को प्राप्त करके विरति (नियम) स्वीकार करना ही उचित है, अन्यथा विरतिरहित मानव बिना सींग-पूंछ का पशु है, इसी बात को प्रगट करते हैं
वासरे च रजन्यां च यः खादन्न व तिष्ठति ।
शृंगपुच्छपारंभ्रष्टः स्पष्टं स पशुरेव हि ॥२॥ अर्थ-जो दिन और रात चरता ही रहता है, वह वास्तव में बिना सोंग-पूछका पशु ही है। अब रात्रिभोजन से भी अधिक त्याग करने वाले की महिमा बताते हैं
अह्नो मुखेऽवसाने च यो वे घटिके त्यजन् ।
निशाभोजनदोषज्ञोऽश्नात्यसौ पुण्यभाजनः ॥६३॥ __अर्थ-रात्रिभोजन के दोषों से अमिन जो मनुष्य दिन के प्रारम्भ और रात्रि के अन्त को दो-दो घड़ियां छोड़ कर भोजन करता है, वह विशेष पुण्यभागी होता है।