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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश व्याख्या-जो सूर्योदय से दो घड़ी बाद और सूर्यास्त से दो घड़ी पहले (यानी दिन के प्रारम्भ से और रात्रि आगमन से पूर्व की दो-दो घड़ियां छोड़ कर) भोजन करता है, वही पुण्यात्मा है, उसी महानुभाव ने रात्रि-भोजन के दोष भलीभांति समझं हैं। वही रात्रि के निकट की दो घड़ी को सदोष समझता है। इसी कारण आगम में विहित है कि सबसे जघन्य प्रत्याख्यान मुहूर्तकालपरिमित नौकारसी (नमस्कारपूविका) के बाद और दिन के आखिर में एक मुहूर्त पहले श्रावक अपने भोजन से निवृत्त हो जाता है, उसके बाद प्रत्याख्यान कर लेता है।
____ यहां शंका होती है- यह बताइए कि जो रात्रिभोजनत्याग का नियम लिये बिना ही दिन में भोजन कर लेता है, उसे कुछ फल मिलता है या नहीं? या कोई विशिष्ट फल मिलता है ? इसका समाधान आगामी श्लोक द्वारा करते हैं -
अकृत्वा नियमं दोषाभोजनाद् दिनभोज्यपि।
फलं भजेन्न निर्व्याजं, न वृद्धिर्भाषितं विना ॥६४॥ अर्थ-रात्रिभोजन का प्रत्याख्यान (त्याग) किये बिना ही जो दिन में भोजन कर लेता है, उसे प्रत्याख्यानविशेष का फल नहीं मिल सकता। साधारण फल तो मिलता ही है, जैसे पचन से ब्याज की बात खोले बिना अमानत रखी हुई धनराशि में वृद्धि नहीं होती, वह मूल रूप में ही सुरक्षित रहती है । उसी तरह नियम लिये बिना ही दिन में भोजन करने वाले को नियमग्रहण का विशेष फल नहीं मिलता। पूर्वोक्त वात को प्रकारान्तर से समझाते हैं
ये वासरं परित्यज्य रजन्यामेव भुंजते ।
ते परित्यज्य माणिक्यं काचमा-दते जड़ाः ॥६५॥ अर्थ-जो मनुष्य सूर्य से प्रकाशमान दिन को छोड़ कर रात्रि को ही भोजन करते हैं, वे जड़ात्मा माणिक्यरत्न को छोड़ कर काच को ग्रहण करते हैं।
यहां प्रश्न होता है-'नियम तो सर्वत्र सर्वदा फल देता है, इसलिए अगर कोई नियम लेता है कि 'मुझे तो रात में ही भोजन करना है, दिन में नहीं', तो ऐसे नियम वाले की कौन-सी गति होती है ? इसे ही बताते हैं
वासरे सति ये श्रेयस्काम्यया निशि भुजते ।
ते वपन्त्यूषरे क्षेत्रे, शालीन् सत्यपि पल्वले ॥६६॥ अर्थ-दिन को अनुकूलता होने पर भी जो किसी कल्याण की आशा से रात को खाता है, वह ऐसा ही है, जैसे कोई उपजाऊ भूमि को छोड़ कर ऊपरभूमि में धान बोता है।
व्याख्या--दिन में भोजन हो मकने पर भी जो मनुष्य कल्याण की कामना से-यानी कुशास्त्र या कुगुरु की प्रेरणा से या परम्परागत संस्कारवश अथवा मोहवश श्रेय की इच्छा से-रात को ही भोजन करता है; वह मनुष्य उस किसान की तरह है; जो उपजाऊ खेत होते हुए भी उसमें धान न बो कर ऊपर भूमि में बोता है। रात्रि में ही भोजन करने का नियम भी ऊषरभूमि में बीज बोने की तरह निरर्थक है। जो नियम अधर्म को रोकता है, वही फलदायक होता है; जो नियम धर्ममार्ग में ही रोड़े अटकाता