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मधुमक्षिका द्वारा उच्छिष्ट, हिंसा से उत्पन्न मधु भी त्याज्य है
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झुठा भोजन त्याज्य है, यह बात लौकिक शास्त्रों में भी कही है। इस दृष्टि से मधु भी मक्खियों का उच्छिष्ट होने से ऐंठ के समान त्याज्य है, इस बात को कहते हैं
एकक-कुसुमकोड़ाद् रसमापीय माक्षिकाः । यद्वमन्ति मधूच्छिष्टं तदश्नन्ति न धार्मिकाः ॥३८॥
अर्थ
एक-एक फूल पर बैठ कर उसके मकरन्दरस को पी कर मधुमक्खियां उसका वमन करती हैं, उस वमन किये हुए उच्छिष्ट मधु (शहद) का सेवन धार्मिक पुरुष नहीं करते। लौकिक व्यवहार में भी पवित्र भोजन हो धार्मिक पुरुष के लिए सेवनीय बताया है।
यहाँ शंका प्रस्तुत की जानी है-मधु तो त्रिदोष शान्न करता है। रोग-निवारण के लिए इससे बढ़ कर और कोई औषधि नहीं है । तब फिर इसके मेवन में कौन-सा दोष है ? इसके उत्तर में कहते हैं
अप्यौषधकृते जग्धं मधु श्वननिबन्धनम् । भक्षित प्राणनाशाय कालकूटकणोऽपि हि ॥३६॥
अर्थ रसलोलुपता की बात तो दूर रही, औषध के रूप में भी रोगनिवारणा मधुमक्षण पतन के गर्त में डालने का कारण है। क्योंकि प्रमादवश या जीने की इच्छा से कालकूट विष का जरा-सा कण भी खाने पर प्राणनाशक होता है।
यहाँ पुनः एक प्रश्न उठाया जाता है कि 'खजूर, किशमिश आदि के रस के समान मधु मधुर, स्वादिष्ट और समस्त इन्द्रियों को आनन्ददायी होने से उमका क्यों त्याग किया जाय? इसके उत्तर में कहते हैं
मधुनोऽपि हि माधुर्यमबोधरहहोच्यते । आसाद्यन्ते यदास्वादाच्चिरं नरकवेदनाः ॥४०॥
अर्थ
यह सच है कि मधु व्यवहार से प्रत्यक्ष में मधुर लगता है। परन्तु पारमायिक दृष्टि से नरक-सी वेदना का कारण होने से अत्यन्त कड़वा है । खेद है, परमार्थ से अनभिज्ञ अबोषजन हो परिणाम में कट मधु को मधुर कहते हैं । मधु का आस्वादन करने वाले को चिरकाल तक नरकसम वेदना भोगनी पड़ती है।
मधू पवित्र होने से देवों के अभिषेक के लिए उपयोगी है ; ऐसे मानने वाले की हंसी उड़ाते हैं
मक्षिकामुखनिष्ठ्यूतं जन चाताद्भवं मधु । अहो पवित्रं मन्वाना देवस्नानं प्रयुञ्जते ॥४१॥
अर्थ अहो ! आश्चर्य है कि मधुमक्खी के मुंह से वमन किये हुए और अनेक जन्तुओं की हत्या से निष्पन्न मधु को पवित्र मानने वाले लोग शंकर आदि देवों के अभिषेक में इसका