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योगशास्त्र : द्वितीय प्रकार 'परिग्रह से पर्वत सरीखे महान् दोष पैदा होते हैं', इस बात को प्रकारान्तर से विस्तार से समझाते हैं
संगाद् भवन्त्यसन्तोऽपि रागद्वषादयो द्विषः। मुनेरपि चलेच्चेतो यत्तेनान्दोलितात्मनः । १०६॥
अर्थ परिग्रह के संग आसक्ति से राग, द्वेष आदि शत्र, जो पहले नहीं थे, वे पैदा हो जाते हैं। क्योंकि परिग्रह के प्रभाव से तो मुनि का मन भी डांवाडोल हो कर सयम से च्युत हो जाता है।
व्याख्या परिग्रह के संग से गे राग-द्वेष आदि आन्मगुणविरोधी दुर्भाव उदयावस्था में अविद्यमान थे, वे भी प्रगट हो जाते हैं । रिग्रह के संग से तत्सम्बन्धित राग, (आसक्ति, मोह, ममत्व, मूर्छा, लालसा, लोभ आदि) पैदा होता है ; उसमें विघ्न डालने या हानि पहुंचाने वाले के प्रति द्वंप (विरोध, वैर, घृणा, ईर्ष्या, कलह, दोषारोपण आदि) पैदा होता है। तथा इन्हीं रागडे पादि से सम्बन्धित भय, मोह, काम आदि बध-बंधनादि एवं नरकगमनादि दोप पैदा होते हैं। प्रश्न होता है. जो गगपादि मौजद नही हैं, वे कहाँ से और कैसे प्रगट हो जाते हैं ? इसके उत्तर में कहते हैं--थावक आदि अन्य गृहस्थों की बात तो दूर रही; महाव्रती समभावी मुनि का प्रशान्त मन भी परिग्रह के संग गे चलायमान हो जाता है । मतलब यह कि अनापसनाप वस्तुओं के संग्रह से या वस्तुओं के पास में होने से मुनि का मन भी अस्थिर हो जाता है । और वह राग या द्वेष दोनों में से किसी के भी परिवार से ग्रस्त हो जाता है। इस प्रकार परिग्रह के संग से मुनि भी मुनिजीवन से भ्रष्ट हो जाता है। कहा भी है-अर्थ से छंदन-भेदन मारकाट), सकट, परिश्रम, क्लेश, भय, कटुफल, मरण, धर्मभ्रष्टता और मानसिक अति (अशान्ति) आदि सभी दुःख होते हैं। इसीलिए सैकड़ों दोषों के मूल-परिग्रह का पूर्वमहर्षियो ने निबंध किया है। क्योकि अर्थ अनेक अनर्थों की जड़ है। जिसने अथं का एक बार वमन (त्याग) कर दिया है. वह अगर उसे फिर ग्रहण करने की वाञ्छा करता है तो किसलिए व्यर्थ ही वह तप, संयम करता है? क्या परिग्रह से बध, बन्धन, मारण, छेदन आदि अधर्म में गमन नहीं होता? वही परिग्रह अगर यतिधर्म मे आ गया तो सचमुच वह प्रपञ्च ही हो जाएगा। सामान्यरूप से परिग्रह के दोष बता कर अब उसे मूल श्रावकधर्म के साथ जोड़ते हैं
संसारमूलमारम्भास्तेषां हेतुः परिग्रहः । तस्मादुपासकः कुर्यादल्पमल्पं परिग्रहम् ॥११०॥
अर्थ प्राणियों के उपमर्दन (पीड़ा या वध) रूप आरम्भ होते हैं, वे हो संसार के मूल हैं। उन आरम्मों का मूल कारण परिग्रह है। इसलिए श्रमणोप सक या श्रावक धनधान्यादि परिग्रह अल्प से अल्प करे ।यानी परिग्रह का परिमाण निश्चित करके उससे अधिक