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व्यर्थ ही हसी उडाते है । हमें क्या अधिकार है कि इस प्रकार का त्याग त्यागी का अपमान करें ? हमे उनमे क्षमा मांगनी चाहिए। आयंदा, हमें का तिरस्कार, अवगणना या उपहास नहीं करना चाहिए।" इस प्रका ने उनका वचन शिरोधार्य किया और अपने-अपने स्थान पर चले गए।
योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश
करने में अशक्त हम लोग ऐसे कभी इनका या किसी भी साधु अभयकुमार के निवेदन पर लोगों
इस प्रकार बुद्धि का सागर, पितृभक्ति में तत्पर, निम्फ धर्मानुरागी अभयकुमार पिता के शासन को सुव्यवस्थित रूप से चलाना था जो स्वयं धर्माचरण करता हो वो जनता से धर्माचरण करा सकता है। जनता और शु की वृति रेला और पशुपालक के अधीन कमार ने राज्यकार्यभार स्वयं उठा कर राजा को निश्चित कर दिया वाला श्रावकधर्म स्वीकार करके अप्रमतचित्त भी बना। जिस तरह जीता. वैसे ही दोनों लोक में बाधक अन्तरंग शत्रुओं को भी जीना ।
अब प्रचलित विषय -- मनीष की ही प्रशंसा करते हैं
है। एक ओर जैसे अभयही दूसरी ओर, वह बारह व्रतों बाहर के दुर्जय शत्रुओ को
एक दिन राजा श्रंणिक ने उससे कहा "वास ! जाइन राज्य को तुम संभालो, ताकि मैं निश्चिन्त हो कर श्रीवीर परमात्मा की सेवाभक्ति कर सकू। पिनाकी आज्ञा के भगम और संसार परिभ्रमण से भीरु अभयकुमार ने वहा • पिताजी ! आपकी अन तुन्दर है, लेकिन कुछ समय प्रतीक्षा कीजिए ।" म० महावीर भी उन दिनों उदायन राजा की दीक्षा द राजगृह पधार गए । अभयकुमार ने उनके चरणों में पहुंच कर नमस्कार पूछा - "प्रभो ! आपकी विद्यमानता में अन्तिम राजपि कौन होग ? "उदायन को ही अन्तिम राजप समझना ।" अभयकुमार ने उनी निवेदन किया- 'पिताजी! यदि मैं राजा बन गया तो फिर ऋषि नहीं बन ग गा ; क्योकि वीरप्रभु ने अन्तिम राजप उदा न को बताया है। और फिर वीरप्रभृ जैसे स्वामी मिले हों, और आप जैसे धर्मिष्ठ पिता मिले हों, फिर भी में संसार के दुखों का छेदन नगखा अधम और उन्मत्त और कौन होगा ? इसलिए पिताजी अभी तो मैं नाम से अभय है न समय से अत्यन्न भयभीत हूँ । इसलिए मुझे आज्ञा दीजिए, ताकि त्रिभुवन को अभयदान देना श्री का आश्रय ले कर पूर्ण अभय बन जाऊँ । अभिमान वर्द्धक एवं वैषयिक सुखामक्तिकारक इस राज्य से मुझे क्या लाभ ? क्योकि महर्षि लोग तृष्णा में नहीं, अपितु गोप में सुख मानते है ।" अभयकुमार से अणिक राजा व बारबार अत्यन्त आग्रह करने पर भी जब वह राज्य ग्रहण करने को तत्पर नही हुआ, तर विवश हो कर श्रेणिकराजा ने उसे टीजा लेने की हर्ष अनुमति दे दी। संतोषसुखाभिलापी अभयकुमार ने राज्य की तिनके के समान व्याग कर वैराग्यभाव में तीर्थंकर महावी. प्रभु चरणकमला में दीक्षः अगीकार की । सुखप्रदायक, मनोष के धारक श्रीमानि आयुष्य गुण करके सर्वा' नाम देवलोक में गये । इस प्रकार संतोषसुख का आलगन वाला जय व्यक्ति भी अगमनमा उत्तरोत्तर सुख प्राप्त करता है । यह हैकुम की जीवनगाथा.
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नरभूमि मे विहार करते हुए किया और सर्वज्ञ तीथकर प्रभु से इसके उत्तर मे भगवान् ने कहाविरजा के पास आ कर
सन्निधौ निधयस्तस्य कामगव्यनुगामिनी । अमराः किकरायन्ते संतोषो यस्य भूषणम् ॥ ११५ ॥