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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश
व्याख्या चर याना द्वीन्द्रिय आदि त्रसजीव और अचर यानी एकन्द्रिय आदि स्थावर जीव । विभिन्न दिशाओं में मर्यादित सीमा से बाहर गमनागमन करने से वहाँ रहे हुए बस-स्थावर जीवों को हिमा हाती है; लेकिन इस गुणव्रत के द्वारा उक्त दसो दिशाओं में गमनागमन की सीमा निश्चित कर लेन से वह बाहर रहे हुए जीवों की हिसा से सर्वथा निवृत्त हो जाता है। हिसा की निवृत्ति से हिंसा का प्रतिषध तो हो ही जाता है । इस कारण गृहस्थ के लिए यह सव्रत ही है। हिसा-प्रतिषेध के समान असत्य आदि दूमर पापों से भी निवृत्ति हो जाती है । यहां यह शका होती है कि इस तरह तो साधु के लिए भी दिशापरिमाण करने का मग आएगा ; इसके उत्तर में कहते है ; यह ठीक नहीं है । साधु तो आरम्म परिग्रह से सर्वया मुक्त होता है गृहपथ आरम्भ और परिग्रह से युक्त होने से वह जायेगा, चलेगा, बैठेगा, उठेगा, खायेगा, पीएगा, मोएगा या कोई भी कार्य करेगा ; वहां तपे हुए गोले के समान जीव की विराधना (हिमा) करेगा। इसीलिए कहते है-. 'तपा हुआ लोह का गोला जहाँ भी जाएगा, वहाँ जीवां को जलाय बिना नही रहेगा ; वैसे ही प्रमादी और गुणव्रत से रहित गृ:स्थ भी तपे हुए गोले के समान सर्वत्र पाप कर मकता है। परन्तु साधु समिति-गुप्ति से युक्त और महाव्रतधारी होते है ; इसलिए वे तपे हुए गोले के समान इस दोष से सम्पृक्त नहीं होते। इसलिए उन्हें दिग्विरतिव्रत ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है।
इसके अतिरिक्त यह व्रत लोभरूपी पापस्थानक से निवृत्ति के लिए भी है। इसी बात को आगे क श्लोक मे कहते हैं
जगदाक्रममाणस्य प्रसरल्लोभवारिधेः । स्खलनं विदधे तेन, येन दिग्विरतिः कृता ॥३॥
अर्थ जिस मनुष्य ने दिग्विरति (दिशापरिमाण) व्रत अंगीकार कर लिया, उसने सारे संसार पर हमला करते हुए फैले हुए लोभरूपी महासमुद्र को रोक लिया।
व्याख्या जिस व्यक्ति ने दिग्विरतिव्रत अंगीकार कर लिया अर्थात् जिसने अमुक सीमा से आगे जाने पर स्वेच्छा से प्रतिबन्ध लगा लिया ; तब उसे स्वाभाविक ही अपनी मर्यादित क्षेत्र से बाहर स्थित सोन, चादी, धन, धान्य आदि में प्रायः लोम नही होता। अन्यथा, लोभाधीन बना हुआ मनुष्य ऊध्वं-लोक में देवसम्पत्ति की, मध्यलोक में चक्रवर्ती आदि की सम्पत्ति की, और पाताललोक में नागकुमार आदि देवों की सम्पत्ति की अभिलाषा करता रहता है। तीनों लोकों के धन आदि को प्राप्त करने के मनसबे बांधता रहता है और मन ही मन झूठा संतोष करता रहता है। इसीलिए लोभ को तीनो लोकों पर आक्रमण करने वाला बताया है । इसे समुद्र की उपमा दी है। ममुद्र जैसे अनेक कल्लोलों (लहगें) से आकुल और अथाह होता है, वैसे ही लोभरूपी समुद्र भी अनेक विकल्प-कल्लोलों से परिपूर्ण है, और उसकी थाह पाना अत्यन्त कठिन है। इस प्रकार बढ़ते हुए लोभ को रोकने का काम दिग्विरतिव्रत करता है।
इस व्रत के सम्बन्ध में कुछ आन्तरश्लोक हैं, जिनका अर्थ हम नीचे दे रहे हैं