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ॐ अर्हते नमः
तृतीय प्रकाश
गुणव्रतों का विवेचन
अणुव्रत पर विस्तार से विवेचन करने के पश्चात् अब गुणव्रतों की व्याख्या का अवसर प्राप्त होने से प्रथम गुणव्रत का स्वरूप बताते हैं
दशस्वपि कृता दिक्षु यत्र सीमा न लङ्घ घ्यते । ख्यातं दिग्विरतिरिति प्रथमं तद् गुणव्रतम् ॥ १॥
अर्थ
जिस व्रत में दशों दिशाओं में जाने-आने के की गई सोमा ( मर्यादा) का भंग न किया जाय ; वह दिग्विरति नामक पहला गुणव्रत कहलाता है ।
व्याख्या
पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैऋत्य, पश्चिम, वायव्य, उत्तर, ईशान, ऊध्वं और अधोरूप दस दिशाएं हैं । इन दशों दिशाओं में गमनागमन की सीमा निश्चित करना और तदनुसार नियम अगीकार करना; प्रथम गुणव्रत है। उत्तरगुणरूप होने से भी यह गुणव्रत कहलाता है । अथवा अणुव्रतों की रक्षा करने में गुणकारक (उपकारी) होने से दिग्विरति नामक प्रसिद्ध गुण व्रत है ।
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यहाँ प्रश्न होता है कि अणुव्रतों को हिंसादि पापस्थानक की विरतिरूप कहा; यह तो ठीक है; मगर दिव्रत में कौन-से पापस्थानक से निवृत्ति होती है, जिससे उसे व्रत कहा जाय ? इसके उत्तर में कहते हैं - 'इस व्रत में भी हिंसादि पापस्थानकों से बिरति होती है । इसी बात को स्पष्ट करते हैंचराचराणां जीवानां विमदंननिवर्तनात् । तप्तायोगोलकल्पस्य सद्व्रतं गृहिणोऽप्यद ॥२॥
अर्थ
चारों दिशाओं में क्षेत्र को मर्यादित करने से चराचर जीवों के हिंसादि के रूप में विनाश से निवृत्ति होती है। इसलिए तपे हुए लोहे के गोले के समान गृहस्थ के लिए भी यह व्रत शुभ बताया जाता है ।