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वेश्या द्वारा धर्मछल से गिरफ्तार अभयकुमार उज्जयिनी में चण्डप्रद्योत के यहाँ
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दूसरे दिन सुबह उन्ह निमन्त्रण दे कर अभ्यकुमार ने गृहमन्दिर में वैत्यवन्दन किया और वस्त्र ग्रहण करने की भक्ति की। उन्होंने भी एक दिन अभयकुमार को निमत्रण दिया। विश्वस्त हो कर अमयकुमार अकेला ही उनक यहां गया । सामिक के आग्रह से सामिक क्या नहीं करते?' उन्होंने भी अभयकुमार को विविध प्रकार का स्वादिष्ट भोजन कगया। और चन्द्रहाम मदिगमिश्रित जलपान कराया। भोजन से उठते ही अभयकुमार सो गया । क्योकि मद्यपान की प्रथम सहचरी निद्रा होती है । पहले से सोची हुई व्यवस्था के अनुसार म्या -स्थान पर रखे हुए रयों के कारण कोई इस पड्यंत्र को जान नही सका और बेहोणी की हालत में ही कपटगृहममा गणिका ने अभयकुमार को उज्जयिनी पहुंचा दिया।
इवर अभयकुमार की तलाश करने क लिए थेणिक राजा ने चारों ओर सेवक दौड़ाए। स्थान-स्थान पर खोज करते हुए नेक बहा भी पहुंचे, जहाँ गणिका ठहरी हुई थी। सेवकों ने उससे पूछा --क्या अभयकुमार यहा आया है ?' गणिका ने कहा--"हा, आय। जरूर था, मगर वह उसी समय चला गया।' उनक, वचन पर विश्वास रख कर ढ ढने वाले अन्यत्र च.न गए । वश्या क लिए भी स्थान स्थान पर घोड़े रखे गए 4 | अन. व घोड़ पर बैठ कर उज्जयिनी पहुंच गई। उसक बाद प्रचण्ड कपटक नाप्रवीण वेश्या ने अभयकुमार को चण्डप्रद्योत राजा के सुपुर्द किया । चण्डप्रद्योत राजा के द्वारा कमे और किस तरह लाई ' इन्पादि विवरण पूछने पर उने आने चातुर्य की सारी घटना आद्योपान्त कही। इस पर चण्डप्रद्योत ने कहा - 'धर्मविश्वासी शक्ति को न धमंछन करके लाई उचित नही किया।" फिर चण्डप्रद्योत ने अभयकुमार से कहा-' जैसे १७ बार बिल्ली से बचने का कहने वाला तोता स्वयं बिल्ली में पकड़ा जाता है, वैसे ही नीतिज्ञ हो कर भी तुम कैसे पकड़े गए ?" अभयकुमार ने कहा .. ''आप स्वय बुद्धिणाली है, तभी तो इस प्रकार की बुद्धि से राजधर्म चलाते हैं । लज्जा और क्रोध से चण्डप्रद्योत ने अभयभार को गजहंस के समान काष्ठ के पीजर में बंद कर दिया । चंडप्रद्योत के राज्य में अग्निभारु रथ, शिवादेवी, नलगिरि हाथी, लोहजघ लेखवाहक रत्न थे। लोहजंघ लेखवाहक को वह बार-बार भृगुकच्छ भेजा करता था। लेखबाहक के भी वहां बारबार आने जाने से लोग व्याकुल हा गए और उन्होंने रिस्पर मंत्रणा की कि 'यह लानवाहक दिन नर में २५ योजन की यात्रा करता है. और बार बार हम परेशान करता है. अनः किमीमी उपाय से अब इस मार दिया जय।' ऐसा विचार कर उन्हाने उनके रास्ते के खाने में विमिश्रित लडडू दिये और उसके पास से दूसरा भाता (पाथेय) आदि सभी वस्तुएं छीन ली । लोहजंघ चलते-चलते बहुत-सा मार्ग तय कर लेने के बाद एक नदी के किनार भोजन करने बैठा । परन्तु उस समय अपशकुन हुआ जान कर वह बिना खाये ही आगे चल पड़ा । भूखा होने से खाने के लिए फिर वह एक जगह रुका ; शकुन न उसे इस बार भी न खाने का सकेत किया। वह बिना खाये ही सीधा चण्डप्रद्यो। राजा के पास पहुंचा। और सारी आपबीती सुनाई । चण्डप्रद्योत ने अभयकुमार को बुला कर पूछा कि क्या उपाय करना चाहिए : बुद्धिशाली अभयकुमार ने थैली में रखा हुआ भोजन सूघ कर कहा- "इसम अनुक द्रव्य के सपोग से उत्पन्न हुआ दृष्टिविष सर्प है । अगर इस चमई की थैली को खोल दिया जायगा तो यह अवश्य ही जल कर भस्म हो जायगा।'' अभयकुमार के कहे अनुसार सेवक को भेज कर राजा ने वह थैली जगल मे उलटी करवा कर वहीं छोड़ दी। इससे वहाँ के वृक्ष जल कर भस्म हो गए और यह सब भी मर गया । अभयकुमार की बुद्धिकुशलता से प्रसन्न हो कर चण्डप्रद्योत ने उसे कहा बन्धन मुक्ति के मिवाय कोई भी वरदान मांगो।' अभय कुमार ने कहा- "मेरा वरदान अभी आपके पास अमानत रहने दीजिए।"