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योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश
अर्थ दुःख के कारणरूप असन्तोष, अविश्वास और आरम्भ को मूर्छा के फल मान कर परिग्रह पर नियंत्रण (अंकुश) करना चाहिए।
व्याख्या श्रावक को दुःख के कारणभूत एवं मूर्छा के फलरूप परिग्रह का परिमाण (मर्यादा) करना चाहिए । परिग्रह से असंतोष रहता है। कितना भी मिल जाय, फिर भी तृप्ति नहीं होती, इसलिए वह दुःख का कारण है। मूर्छा वाले को अत्यधिक धन मिल जाय, फिर भी संतोष नहीं होता, बल्कि वह उत्तरोत्तर अधिक से अधिक धन मिलने की आशा ही बाशा में बेचनी महसूस रहता है । उसे दूसरे की अधिक सम्पत्ति देख कर अपनी कम सम्पत्ति में असन्तोष मानने से दुःख होता है । इसीलिए कहा है - 'असंतोषी मनुष्य का कदम-कदम पर अपमान होता है। जबकि संतोषरूपी ऐश्वयंसुख वाले को दुर्जनभूमि दूर होती है।' अविश्वास भी दुःख का कारण है। जब सारा वातावरण अविश्वनीय हो जाता है, तब आशंका न करने योग्य पुरुष पर भी कदम कदम पर आशंका की जाती है। अपने धन की रक्षा करने में भी किसी पर विश्वास नहीं होता। इसीलिए कहते हैं-उखाड़ना, खोदना, जमाना, रखना, रात को न सोना, दिन को भी साशंक सोना, गोबर से लीपना, सदा निशान करना, विपरीत निशान करना, मूळ (आसक्ति) के कारण (मनुष्य या किसी भी प्राणी को शंकावश मार डालना आदि) प्राणातिपात बादि
रना, या मारने की स्वीकृति देना (जैसे पुत्र पिता को, पिता पुत्र को, भाई सगे भाई को धन के लिए मरवा देता है), रिश्वत लेना या देना, भूठी साक्षी देना या दिलाना; सफेद झूठ बोलना इत्यादि अनयों में प्रवृत्त होता है। अधिक बलवान होने पर धनलोभी यात्रियों को पकड़ कर लूटता है, दीवार में सेंध लगाता है, सूराख करता है ; धनलोभवश परस्त्रीगमन करता है तथा नोकरी, खेती, पशुपालन या व्यापार आदि करता है । धनासक्त मनुष्य मम्मण वणिक की तरह नदी आदि में प्रवेश करने का दुःख उठा कर लकड़ियां बाहर निकालता है।
यहां प्रश्न होता है कि दुःख का कारण मूर्छाफल समझ कर परिग्रह का त्याग करना चाहिए; इस वचन को युक्तिपूर्वक कसे समझा जाय ? इसके उत्तर में कहते हैं परिग्रह मूर्छा का कारण होने से परिग्रह भी एक प्रकार से मूर्छा ही है। अथवा 'मूर्छा परिग्रहः' इस प्रकार सूत्रकार के वचनानुसार मूर्छा ही परिग्रह है। यह कथन निश्चयनय की दृष्टि से है। मूर्छा से रहित धन-धान्यादि हो तो वह अपरिग्रह है। कहते हैं-ममकार-या ममत्व के बिना अगर कोई पुरुष वस्त्र, बाभूषण आदि से अलंकृत हो तो भी वह अपरिग्रही है । और ममकार-ममत्व से युक्त व्यक्ति नग्न हो, फिर भी वह परिग्रही है। गांव या घर में प्रवेश करते हुए कर्म या अल्प (पदार्थ) ग्रहण करने पर भी अगर वह परिग्रह या ममत्व से रहित है तो उसके जैसा अपरिग्रही कोई हो नहीं सकता। वह जो भी वस्त्र, पात्र, कंबल या बासन आदि ग्रहण करता है, वह संयमयात्रा के लिए व लज्जानिवारण के लिए करता है। ससारसमुद्र के पारगामी महर्षि भगवान् महावीर ने उसे परिग्रह नहीं कहा है। यह सब कथन स्पष्ट है। अब प्रकारान्तर से परिग्रह-त्याग की आवश्यकता बताते हैं -
पारग्रहम .त्यादि मानव भवाम्बुधौ । मापात इव प्राणी त्यजेत्तस्मात् परिग्रहम् ॥१०७॥