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योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश स्थिति में अनशन करूंगी। धर्महानि और पति पर विपत्ति के समय कुलीन नारियां कैसे जी सकती हैं ?" इस ओर राज्यरक्षक पुरुषों ने सुदर्शन को वध्यस्थान पर ले जा कर उसे शूनी पर चढ़ा दिया । क्योंकि सेवकों के लिए राजाज्ञा भयंकर और अनुल्लघ्य होती है। परन्तु पलक मारते ही वहां शूली के स्थान पर स्वर्णकमलमय सिंहासन बन गया ! देवप्रभाव के आगे एक बार तो यमराज की दाढ़ भी
ठित हो जाती है। फिर भी राजपुरुषों ने सुदर्शन का वध करने के लिए तीखी तलवार से दृढ़तापूर्वक प्रहार किया। मगर गले के लगते ही नलवार पुष्पमाला बन गई। यह अद्भुत चमत्कार देख कर राजपुरुष दौड़े-दौड़े राजा को यह खबर देने पहुंचे। उनके द्वारा सारी घटना सुनाते ही राजा फौरन हथिनी पर बैठ कर घटनास्थल पर आए । सुदर्शन को देखते ही राजा ने आलिगन करके पश्चात्तापपूर्वक कहा-"ष्ठि ! आपका पुण्य बड़ा प्रबल था, इस कारण बाल भी बांका नहीं हो सका । मैं इसके लिए अत्यन्त लज्जित हूं कि मुझ पापी ने आप पर झूठा दोषारोपण करके आपको बदनाम किया। मैंने ऐसा करके आपका बहुत बड़ा अहित किया । पर आपने तो अपना सज्जन का धर्म निभाया। मुझे क्षमा करें।" मायाविनी स्त्री पर विश्वास करके मैंने आपका वध करने का आदेश दे दिया था। इसलिए इस दधिवाहन के सिवाय ससार में ऐसा कोई पापी नहीं है । दूसरी बात यह है कि मुझसे यह जो भयंकर पाप हुआ, उसका एक कारण यह भी बना कि "मैंने आपको इस विषय में बारबार पूछा, लेकिन आपने बिलकुल उत्तर नहीं दिया।" बताइए, मै अल्पज्ञ इस पर से और क्या निर्णय करता ?" अस्तु, कुछ भी हो, आप हाथी पर बैठिये ।" राजा ने सुदर्शन को हथिनी पर बिठाया और वार्तालाप करते-करते अपने महल में ले गया । स्नान करवाया, वस्त्र-आभूषण पहनाए और फिर एकान्त में ले जा कर रात को हुई घटना यथार्थ रूप से कहने का अनुरोध किया । सुदर्शन सेठ ने सारी घटना यथातथ्यरूप से सुनाई। सुनते ही राजा को अभयारानी पर क्रोध चढ़ा और वह उसे सजा देने को तैयार हुआ । सुदर्शन ने फौरन राजा के चरणों में गिर कर एमा करने से रोका। इस पर राजा ने अभयारानी को क्षमादान दिया । तत्पश्चात् न्यायरक्षक राजा ने मुदर्शन मेठ को हाथी पर बिठा कर नगर के बीचोबीच होते हुए सम्मानसहित गावाजे के साथ घर पहुंचाया।
अभयारानी को सत्य घटना प्रगट हो जाने से अत्यन्त खेद हुआ। उसने गले में फंदा डाल कर आत्महत्या कर ली। 'पद्रोह करने वाले पापी का अपने आप ही पतन होता है।' पण्डिता भी वहां से मटपट भाग कर पाटलिपुत्रनगर में पहुंची, और वहां देवदत्तागणिका के यहां रही। बात-बात में वह देवदत्ता के सामने सुदर्शन की प्रशंसा करती थी। इस कारण देवदत्ता के मन में भी सुदर्शन के दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा जागी। सुदर्शन ने संसार से विरक्त हो कर मुनिदीमा अंगीकार कर ली। समुद्र जैसे रत्नाकर कहलाता है, वैसे ही गुणरत्नाकर गुरुदेव से आज्ञा ले कर तप से कृशतनु सुदर्शनमुनि एकलविहारी प्रतिमा धारण करके ग्रामानुग्राम विहार करते हुए पाटलिपुत्र पहुंचे। जब वे मिक्षा के लिए नगर में घूम रहे थे. तभी अचानक पण्डिता ने उन्हें देख कर भिक्षाग्रहण करने की प्रार्थना की। निःस्पृह और निर्लेप मुनि भी लाभहानि का विचार किये बिना निर्दोष भिक्षा के लिए उसके यहां पहुचे । देवदत्ता ने द्वार बंद कर दिया और पूरे दिन उन्हें विचलित करने के लिए नाना प्रकार के प्रलोभन दिये । परन्तु मुनि अपने महाव्रत से जरा भी नहीं डिगे। मुनि को दृढ़ जान कर देवदत्ता ने शाम को द्वार खोल कर उन्हें विदा किया। मुनि वहां से सीधे एक उद्यान में पहुंचे, जहां अभयारानी मर कर व्यन्तरी बनी हुई थी। सुदर्शनमुनि को देखते ही उसे पूर्वजन्म को घटना स्मरण हो आई और वह उस समभावी मुनि को विविध यातनाएं देने लगीं। सचमुच, 'चीबों का ऋण और वर जन्म-जन्मान्तर तक नहीं मिटता।' व्यन्तरी ने