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योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश
कर्म बांधते हुए सोलह वर्ष व्यतीत हो गये । इस प्रकार कुल सात सौ मोलह वर्ष का आयुष्य पूर्ण कर हिसानुबन्धी परिणाम के फलानुरूप ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती सातवीं नरक का मेहमान बना ।
हिंसा करने वाले की फिर निंदा करते हैं
कुणिर्वरं वरं पङ गुरशरीरी वरं पुमान् ।
अपि सम्पूर्णसर्वांगो, न तु हिंसापरायणः ॥ २८ ॥
अर्थ
हिंसा नहीं करने वाले, लूले, लंगड़े, अपाहिज (विकलांग) और कोढ़िये अच्छे, मगर सम्पूर्ण अंग वाले हिंसाकर्ता अच्छे नहीं ।
व्याख्या
हाथो और पैरों से रहित लूले, लंगड़े, बेडौल, कोढी और विकलांग हो कर भी जो अहिंसक है, वह जीव अच्छा है; लेकिन सभी अंगों से परिपूर्ण हो कर भी जो हिंसा करने में तत्पर है; वह जीव अच्छा नही ।
यहां यह प्रश्न होता है कि रौद्रध्यान-परायण पुरुष यदि शान्ति के लिये प्रायश्चित्त के रूप में हिंसा करे अथवा मछुए आदि अपनी-अपनी कुलाचार - परम्परा से प्रचलित मछली आदि मार कर हिंसाएँ करते है और उनके करते समय उनके परिणाम रौद्रध्यान के नहीं होते तो क्या उन्हें उक्त हिंसा से हिसा का पाप नहीं लगेगा ?
इसके उत्तर में कहते हैं
हिंसा विघ्नाय जायेत विघ्नशान्त्यै कृताऽपि हि । कुलाचारधियाऽप्येषा कृता कुलविनाशिनी ॥ २९ ॥
अर्थ
विघ्न की शान्ति के लिये की हुई हिंसा भी विघ्न के लिए होती है। कुलाचार की बुद्धि से की हुई हिंसा कुल का विनाश करने वाली होती है ।
व्याख्या
अविवेक या लोभ से विघ्नशान्ति के निमित्त अथवा कुल परम्परा से प्रचलित हिंसा चाहे रौद्रध्यानवश न हुई हो, लेकिन वही विघ्नशान्ति के बदले घोरविघ्नरूप बन जाती है । समरादित्य कथा में बताए अनुसार — यशोधर के जीव सुरेन्द्रदत्त ने विघ्नशान्ति के लिए सिर्फ आटे का मुर्गा बना कर उसका वध किया था । जिसके कारण उसे वह वध जन्म-मरण की परम्परा में वृद्धि के रूप में विघ्नभूत हो गया था। इसी प्रकार 'यह तो हमारा कुल परम्परागत आचार है, या रिवाज है, इस दृष्टि से की गई हिंसा भी कुलविनाशिनी ही होती है ।
कुलपरम्परागत हिंसा का त्याग करने वाला पुरुष कैसे प्रशंसनीय बन जाता है ? इसे अब आगे के श्लोक द्वारा बता रहे हैं