________________
चोरी से निवृत्त होने का फल
१९३ प्रकार चौर्यकर्म से विमुख व्यक्ति रोहिणेय की तरह थोड़े ही समय में स्वर्गसुख को प्राप्त कर लेता है। अतः बुद्धिमान पुरुष दोनों भवों को बिगाड़ने वाली चोरी हगिज न करें। अब चोरी के होने वाले दोषों के त्याग का निर्देश करते हैं
दूरे परस्य सर्वस्वमपातु मुपक्रमः । उपा दात नावत्तं तृणमात्रमपि क्वचित् ॥७३॥
अर्थ दूसरे का धन आदि सर्वस्व हरण करने की बात तो दूर रही, परन्तु विये बिना एक तिनका भी नहीं लेना चाहिए । उसके लिए प्रयत्न भी नहीं करना चाहिए। अब चोरी से निवृत्त होने का फल दो श्लोकों में बताते हैं -
परार्थग्रहणे येषां नियमः शुद्धचेतसाम् । अभ्यायान्ति श्रियस्तेषां स्वयमेव स्वयंवरा ॥७४॥
अर्थ जो शुद्धचित्त मनुष्य दूसरे का धन हरण न करने का नियम ले लेता है, उसके पास सम्पत्तियां स्वयंवरा कन्या के समान स्वयं आती हैं ; न कि दूसरे को प्रेरणा से ; अथवा व्यापार-धंधे से प्राप्त होती हैं।
और भी देखिये____अनर्था दूरतो यान्ति साधुवादः प्रवर्तते । स्वर्गसौख्यानि ढोकन्ते स्फुटमस्तेयचारिणाम् ॥७॥
अर्थ अस्तेयवत का आचरण करने वाले पर विपत्तियां आ जाने पर भी दूर चली जाती हैं। लोगों में उसे अपनी प्रामाणिकता के लिए धन्यवाद मिलता है कि "यह आदमी प्रामाणिक है।" इस लोक में उसकी प्रशसा होतो है, परलोक में भी वह स्वर्गसुख प्राप्त करता है।
व्याख्या प्रसंगानुसार यहां कुछ पलोकों का अर्थ दिया जा रहा है
अग्निशिखा का पान करना, सर्प का मुख चूमना और हलाहल विष का चाटना अच्छा, लेकिन दूसरे का धन हरण करना अच्छा नहीं है । दूसरे के धन में लोभवृत्ति रखने वाले की बुद्धि प्रायः निर्दयी हो जाती है। वह अपने भाई, पिता, चाचा, स्त्री, मित्र, पुत्र और गुरु तक को मारने के लिए उद्यत हो जाता है। दूध पीना चाहने वाली बिल्ली को मारने के लिए उठाए हुए डंडे के समान परधनहरण करने वाला अपना वध-बन्धन टाल नहीं सकता। शिकारी, मच्छीमार, दिल्ली आदि से भी चोर बढ़कर है। क्योंकि राजा गिरफ्तार करता है, मगर चोर-मनुष्यों को ही, अन्य जीवों को नहीं। इसलिए बुद्धिमान मनुष्य अपने सामने पड़े हुए सोने, रत्न आदि पराये धन को भी पत्थर के समान समझे । इस तरह संतोषरूपी सुधारस से तृप्त गृहस्थ स्वर्ग प्राप्त करता है।
२५