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योगशास्त्र : रितीय प्रकाश अब परलोक और इस लोक में अब्रह्मचर्य का फल बतलाते हुए गृहस्थयोग्य ब्रह्मचर्यव्रत का निरूपण करते हैं
षण्ढत्वमिन्द्रियच्छेदं, वीक्ष्याब्रह्मफलं सुधीः । भवेत् स्वदारसंतुष्टोऽ'दारान् वा विवर्जयेत् ॥७६॥
अर्थ समझदार गृहस्थ उपासक परलोक में नपुंसकता, और इहलोक में राजा या सरकार आदि द्वारा इन्द्रियच्छेदन वगैरह अब्रह्मचर्य के कड़वे फल देख कर या शास्त्रादि द्वारा जान कर परस्त्रियों का त्याग करे और अपनी स्त्री में सन्तोष रखे।
व्याख्या यद्यपि अंगीकार किये हुए व्रत का पालन करते हुए गृहस्थ को इतना पापसम्पर्क नहीं होता, फिर भी साधुधर्म के प्रति अनुरागी, साधुदीक्षा ग्रहण करने से पहले उपासक गृहस्थजीवन में भी कामभोग से विरक्त हो कर श्रावकधर्म का निरतिचार पालन करता है।
वैराग्य के शिखर पर पहुंचने के लिए अब्रह्मचर्य से निवृत्त होना जरूरी है । अत. अब अब्रह्मचर्यसेवन के दोष बताते हैं
म्यमापातमात्रे, यत्परिणामेऽतिदारुणम् । किम्पाकफलसंकाशं तत्कः सेवेत मैथुनम् ।।७७॥
अर्थ मनसेवन प्रथम प्रारम्भमात्र में बड़ा रमणीय और सुन्दर लगता है, लेकिन उसका परिणाम किम्पाकफल के सदृश बहुत भयंकर है। ऐसी दशा में पौन उस मथुन का सेवन करेगा?
व्याख्या किम्पाकवृक्ष का फल वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श में बडा मनोहर, मधुर और सुगन्धित लगता है, खाने में भी स्वादिष्ट होता है । मन को भी संतोष मिलता है। मगर खाने के बाद वह व्यक्ति जी भी नही सकता ; कुछ ही देर में वह प्राण ले लेता है । इसी प्रकार विषयसुख सेवन करते समय बड़े मनोहर, हृदय को शान्ति देने वाले होते हैं, लेकिन बाद में उनका परिणाम बहुत ही भयंकर आता है। इसीलिए कहते हैं- अनेकदोषों के आश्रयभूत जान कर कोन मैथुन का सेवन करेगा? अब मैथुनसेवन के भयंकर परिणामों का वर्णन करते हैं
कम्पः स्वेदः श्रमो मूर्छा, प्रमिानिर्बलक्षय. । राजयक्ष्मादि रोगाश्च, भवेयुमैथुनोत्थिताः ॥७॥
अर्थ मथुन सेवन करने वाले के कम्प, पसीना, थकान, मूछा, चक्कर, अंग टूटना,