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योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश
उत्साहित हो कर उन चारों सुभटों से भिड़ गया। सर्वप्रथम दण्डधर ( यमराजा) के दण्ड को तोड़ दिया, फिर कुबेर की गदा चूर-चूर करदी । तत्पश्चात् वरण का पाण नष्ट कर दिया और सोम का धनुष तोड़ डाला। बड़ा हाथी जैसे छोटे हाथी को पछाड देता है, वैसे ही रावण ने उन चारों को ऐसा पछाड़ा कि वे चारों खाने चित्त हो गए। फिर वैरी के विनाशहेतु उन चारों को बांध दिया । इन्द्र को साथ में रख कर राज्य के सप्त अंगों सहित रावण ने अब पाताललंका को जीतने के लिए कूच किया। वहाँ के चन्द्रोदय राजा को मार कर उसका राज्य तीन मस्तक वाले एवं दूषण में बली खर को सौंपा। चन्द्रोदय के सारे राज्य एवं अन्तःपुर को कठोर बलशाली खर ने अपने कब्जे में कर लिया। सिर्फ एक गर्भवती रानी भाग कर कहीं चली गई। उसके बाद लंकापति रावण पाताललका से लंका पहुंचा और देवताओं के लिए कांटे के समान खटकने वाले अपने राज्य को निष्कंटक बना दिया ।
आदि दे कर उसका सत्कार माई ! नरक में ले जाने वाले तो अहिंसा में धर्म बताया है,
एक बार रावण सैरसपाटा करने पुष्कर विमान में बैठ कर जा रहा था, तभी इधर-उधर घूमते हुए उसने मस्त राजा को महायज्ञ करते देखा। उसके यज्ञ को देखने के लिए रावण विमान से नीचे उतरा और यज्ञस्थल पर पहुंचा। मस्त राजा ने रावण को सिहासन किया। बातचीत के सिलसिले में रावण ने मरुतराजा से कहा- 'अरे इस हिंसक यज्ञ को क्यों कर रहे हो ? त्रिलोकहितैषी सर्वज्ञ भगवन्तों ने फिर पशुहिंसा से अपवित्र इस यज्ञ से धर्म कैसे हो सकता है ? इसलिए दोनों लोकों को बिगाड़ने वाले शत्रु के समान इस यज्ञ को मत करो। मेरी बात को ठुकरा कर यदि तुम भविष्य में कभी यज्ञ करोगे तो इस लोक में तो तुम्हारा निवास मेरे कारागार में होगा और परलोक में तुम्हारा निवास नरकागार में होगा ।" मरुतराजा ने सारी बातें भलीभांति समझ कर उसी समय यज्ञ बंद कर दिया। क्योंकि विश्व में प्रबल शक्तिशाली रावण की आज्ञा तो उसे माननी ही पड़ती। मरुत से यज्ञ बंद करवा कर हवा के समान फुर्तीला रावण सुमेरु अष्टापद आदि तीयों की यात्रा करने चला गया। वहाँ शाश्वतअशाश्वत माने जाने वाले चैत्यों की यात्रा पूर्ण करके वह वापिस अपने स्थान को लौटा।
इधर अयोध्यानगरी में असीम सम्पत्ति का स्थान, महारथी दशरथ राजा था। उसके चारों दिशाओं की लक्ष्मी के समान कौशल्या, सुमित्रा, कैकयी और सुप्रभा नामक चार रानियाँ थीं कौशल्या रानी से राम, कैकयी से भरत, मुमित्रा से लक्ष्मण और सुप्रभा से शत्रुघ्न नामक पुत्रों का जन्म हुआ। राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न ये चारों राजपुत्र इन्द्र के ऐरावण हाथी के चार दांतों से शोभा देते थे। वयस्क होने पर रामचन्द्र ने धनुष्य पर बाण चढ़ा कर जनकराजा की पुत्री और भामंडल की बहन सीता के साथ विवाह किया। एक दिन राजा दशरथ ने अपनी चारों रानियों को जिनप्रतिमा का मंगलमय अभिषेक जल भेजा। सुमित्रा को वह जल विलम्ब से मिला। इस कारण वह नाराज हो गई। उसे मनाने के लिए राजा दशरथ स्वयं पधारे। उस समय उन्होने अन्तःपुर का एक जराजीर्ण बूढ़ा सेवक कांप रहा था, जिससे मुंह भी उसकी आंखें भौंहों की रोमराजि
देखा, जिसके दांत घंटे के लोलक के समान हिल रहे थे; उसका सिर
चलायमान हो रहा था, उसके सारे शरीर पर चांदी से सफेद बाल थे, से ढक गई थीं, मानो यमराज से मृत्यु की याचना करता हुआ-सा वह बूढ़ा कदम-कदम पर लड़खड़ाता हुआ चलता था । उसे देख कर राजा विचार में पड़ गया- मेरी भी ऐसी दशा हो, उससे पहले-पहले मुझे चौथे पुरुषार्थ- मोक्ष की साधना कर लेनी चाहिए।
दशरथ महाराज महाव्रत अंगीकार करना चाहते थे, इसलिए अपने स्थान पर अपने ज्येष्ठ