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मैथुनसेवन से जीवहिंसा
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बल का नाश, राजयक्ष्मा (तपेदिक = क्षय), भगंदर, दमा, श्वासरोग आदि महारोग पैदा हो
जाते हैं ।
शेषव्रत भी जैसे अहिंसा में समाविष्ट हो जाते हैं, उसी तरह यह ब्रह्मचर्यं भी है। इसलिए मैथुन में अहिंसा का अभाव है, इसे कहते हैं
यो नियंत्रसमुत्पन्नाः सुसूक्ष्मा जन्तुराशयः । पीड्यमाना विपद्यन्ते यत्र तन्मैथुनं त्यजेत् ॥७६॥
अर्थ
योनिरूपी यंत्र में अनेक सूक्ष्मतर जन्तु उत्पन्न होते हैं। मैथुनसेवन करने से वे जन्तु मर जाते हैं । इसलिए मैथून सेवन का त्याग करना चाहिए।
व्याख्या
प्राणी को जन्म देने का मार्ग या उत्पत्तिस्थान योनि कहलाता है । वह यंत्राकार होने से उसे योनियन्त्र कहते हैं । उसमें स्वभावतः उत्पन्न होने वाले समूच्छिम जीव इतने सूक्ष्म होते हैं कि आंखों से नहीं दिखाई देते । इसका ही स्पष्टीकरण करने के लिए दृष्टान्त देते हैं - रूई से भरी हुई नली में तपी हुई लोहे की सलाई रूई को जन्ना देती है ; उसी तरह गर्म योनि में रुई के समान रहे हुए जीवसमूह पुरुपचिह्न के मर्दन से मैथुन करने पर नष्ट हो जाते हैं । इसलिए मैथुनसेवन अनेक जीवों की हिंसा का जनक होने से त्याज्य समझना चाहिए । अन्य शास्त्रों में भी योनि में जन्तुओं का होना बताया गया है। जैसे कि वात्स्यायनरचित कामशास्त्र में भी योनि में जन्तुओं का अस्तित्व माना है । ... जन्तुसद्भाव इति वात्स्यायनोऽप्याह" - अर्थात् कामशास्त्ररचयिता वात्स्यायन ने भी कहा है कि योनि में जन्तुओं का सद्भाव है । कहने का तात्पर्य यह है कि काम को प्रधानता देने वाले वात्स्यायन ने भी योनि में जन्तुओं का होना स्वीकार कर लिया है, छिपाया नहीं ; तब दूसरों का तो कहना ही क्या ।
अब इस विषय में वात्स्यायन द्वारा समर्थित श्लोक दे रहे हैं
रक्तजा कृमयः सूक्ष्मा, मृदुमध्याधिशक्तयः । जन्मवर्त्मसु कंडूत जनयन्ति तथाविधाम् ॥८०॥ अर्थ
रक्त से उत्पन्न सूक्ष्म, मृदु, मध्यम और अधिक शक्ति वाले सूक्ष्म कृमि स्त्री के योनि मार्गो में वैसी खुजली पैदा करते हैं।
मैथुनसेवन से जो कामज्वर की शान्ति मानते हैं, या उसे कामज्वर की चिकित्सा या प्रतीकार मानते हैं, उनके भ्रम का निवारण करते हैं
स्त्रीसम्भोगेन यः कामज्वरं प्रतिचिकी
। स हुताशं घृताहुत्या विध्यापायें: मिच्छति ॥८१॥
अर्थ
जो लोग स्त्रीसम्भोग से कामज्वर का प्रतीकार (चिकित्साशमन या शान्ति) करना चाहते हैं, वे जनती हुई आग में घी की आहुति दे कर उसे बुझाना चाहते हैं ।