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योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश
वह भ्रमण करते-करते चित्रमुनि वहां आया। वहां किसी उद्यान में प्रासुक एवं निरवद्य स्थान में वह मुनि ठहरा हुआ था । एक दिन मुनि ने वहां रेंहट चलाते हुए किसी व्यक्ति के मुंह से वह समस्या-पूर्ति वाला आधा श्लोक सुना । सुनते ही उन्होंने शेष पदों का आधा श्लोक यों बोला " एवा नो पष्ठिकाजातिरन्योऽन्याभ्यां वियुक्तयोः ।" रेहट चलाने वाले ने वह आधा श्लोक याद कर लिया और सीधे राजा के पास जा कर आधा श्लोक उन्हें कह सुनाया। उसे श्रवण कर राजा ने पूछा - 'इस पद को जोड़ने वाला कौन-सा कवि हैं ?" उसने मुनि का नाम बताया। राजा ने उसे बहुत-सा इनाम दे कर विदा किया। अब राजा उस उद्यान में उगे हुए कल्पवृक्ष-स्वरूप मुनि के दर्शन करने गया । हर्षाश्र पूर्ण नेत्रों से राजा ने मुनि को देखते ही वंदन किया और पूर्वजन्मों की तरह स्नेहविभोर हो कर उक्त मूनि के पास बैठा । कृपारस के समुद्र मुनि ने धर्म लाभ के रूप में आशीर्वाद दे कर राजा के लिए हितकर धर्मोपदेश दिया-
सारभूत वस्तु है तो कीचड़
"राजन् ! इस असार संसार में कुछ भी सार नहीं है । यदि कोई में कमल की तरह संसाररूपी कीचड़ में कमलसमान केवल धर्म ही है। शरीर यौवन लक्ष्मी, स्वामित्व, मित्र और बन्धुवर्ग, ये सभी हवा से उड़ती हुई ध्वजा के समान चंचल हैं। जैसे चक्रवर्ती षट्खण्डरूप पृथ्वी पर दिग्विजय करके साधने के लिये तमाम बाह्य शत्रुओं को जीतना है, वैसे ही मोक्षसाधना के लिए अन्तरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त करो। बाह्य और आभ्यन्तर शत्रुओं का विवेक कर महाशत्र ुओं के समान आभ्यन्तर - शत्र ओं का त्याग करो । राजहंस जैसे क्षीर और नीर का पृथक्करण (विवेक) करके दूध को ही ग्रहण करता है, वैसे ही तुम सारासार का विवेक करके यतिधर्म को ग्रहण करो। ब्रह्मदत्त ने कहा- 'बन्धो ! आज बड़े ही भाग्य से आपके दर्शन हुए हैं। तो लो, यह सारा राज्य मैं तुम्हें सौंपता ត្ថី । अपनी इच्छानुसार इसका उपभोग करो । तपस्या का फल मिला है; तो उसका उपभोग करो । तप का फल जब प्राप्त हो गया है, तब और तप किमलिये किया जाय ? प्रयोजन की सिद्धि अपने आप होने पर कौन दूसरा उद्यम करता है ? मुनि ने कहा- 'मुझे भी कुबेर के समान सम्पत्तियां मिली थीं। परन्तु भवभ्रमण के भय से मैंने उनका तृणवत् त्याग कर दिया है। सौधर्म देवलोक में पुण्यक्षय होने पर तुम पृथ्वीतल पर आये हो । अतः हे राजन् ! अब ऐसा न हो कि यहां से जाना पड़े। आर्यदेश में श्रेष्ठकुल में और मोक्ष देने वाली मानवता प्राप्त की साधना कर रहे हो, जो कि अमृत से मलद्वार की शुद्धि करने के समान है। हमने स्वर्ग से च्यव कर etaपुण्य वाली विविध कुयोनियों में परिभ्रमण किया है, उसे याद करके अब भी तुम नादान बालक की तरह क्यों सांसारिक भूल-भुलैया में आसक्त हो रहे हो ?" इम तरह चित्रमुनि ने चक्रवर्ती को बहुत प्रतिबोध दिया, फिर भी वह समझ न सका । सच है, जिसने भोगों का निदान किया हो, उसे बोधिबीज की प्राप्ति कैसे होती ? अन्ततोगत्वा मुनि ने जब यह जान लिया कि यह राजा हर्गिज नहीं समझेगा ; तब उन्होंने वहां से अन्यत्र विहार किया । कालदृष्टि जाति के सर्प के काटने पर गारुडिक का क्या शव चल मकता है ? मुनि ने तप-संयम की आराधना करके अपने घातिकमों का क्षय कर उत्तम केवलज्ञान प्राप्त किया। तथा चार अघाती कर्मों का भी क्षय करके चित्र मुनि ने मुक्ति प्राप्त को
होनपुण्य वाली अधोगति में तुम्हें करके भी तुम इस जन्म में भोगों
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संसार के विषयसुखानुभव में लीन ब्रह्मदत्त भी एक-एक करके सात सौ वर्ष बिता चुका था । इसी दौरान एक पूर्वपरिचित ब्राह्मण आया । उसने चक्रवर्ती से कहा- 'राजन् ! आप जो भोजन करते हैं, वह मुझे भी खाने को दीजिये ।' ब्रह्मदत्त ने कहा कि- "मेरे भोजन को पचाने की तुममें शक्ति नहीं