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मूलदेव को राज्यप्राप्ति
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हुए कहा - 'आज से सातवें दिन तुम यहां के राजा बनोगे ।" प्रमन्न हो कर मूलदेव वहीं रहा। पांचवें दिन नगर के बाहर जा कर वह एक चपक वृक्ष के नीचे सो गया ।
मूल ' के बिना जैसे वृक्ष नष्ट हो जाता है, वैसे ही उस नगर का राजा अचानक ही पुत्ररहित मर गया । अतः नये राजा को तलाश होने लगी। इसके लिए घोड़ा, हाथी, छत्र, चामर, और कलश मंत्रित करके राजा के सेवकों ने सारे नगर में घुमाए, परन्तु राजा के योग्य कोई व्यक्ति नही मिला । सचमुच राज-गुणसम्पन्न व्यक्ति विरले ही मिलते हैं। फिर नगर के बाहर उन्हें घुमाते हुए वे चम्पकवृक्ष के पास पहुँचे, जहां मूलदेव सोया हुआ था । मूलदेव को देखते ही घोड़ा हिनहिनाने लगा, हाथी जोर से चिघाडने लगा । राजसेवक मूलदेव के विषय में संकत समझ कर तुरंत उसके पास पहुंच और उसे जगा कर राजमी वस्त्रों से सुसज्जित करके कलश से वहीं उसका राज्याभिषेक कर दिया और जयकुंवर हाथी की पीठ पर बिठाया। बिजली के-से दण्ड के समान स्वर्ण-दण्डमण्डित दोनों चामर मूलदेव पर दुलाए गए, जिन्होने हवा करने का काम किया, शरदऋतु के मेघ के समान उज्ज्वल श्वेत छत्र मस्तक पर शोभायमान होने लगा । नये राजा मिलने की खुशी में प्रजाजनों ने जय जयकार के नारे लगाए। वाद्यनिनादों ने दशों दिशाओं को गुंजा दिया। इस प्रकार खूब धूमधाम से मूलदेव ने नगर में प्रवेश किया। हाथी से नीचे उतरते ही मूलदेव को राजसेवक राजमहल में ले गए। वहाँ रखे हुए सिंहासन पर उसे बिठाया। उसी समय देवों द्वारा आकाशवाणी हुई-- " देवप्रभाव से युक्त, कलाओं का भंडार यह विक्रम नामक नया राजा राजगद्दी पर बैठा है। जो इस नृप की आज्ञानुसार नही चलेगा, उसको वैसी सजा मिलेगी, जैसे पर्वत को वज्र चूर-चूर कर देता है ।" इस दिव्यवाणी को सुन कर सारी प्रजा और मंत्रीगण स्तब्ध, विस्मित एवं भयभीत हो गए । जैसे मुनि के इन्द्रियगण वश हो जाते हैं, वैसे ही सारे मन्त्रीगण सदा के लिए उसके वशवर्ती हो गए। इस प्रकार धीरे-धीरे राज्य - सचालन व्यवस्थित ढंग से होने लगा । दुःख के सब बादल अब फट गए थे, सुख का सूर्योदय हो गया था । उज्जयिनी के राजा के साथ परस्पर स्नेहयुक्त व्यवहार के कारण उसकी मंत्री हो गई ।
इधर देवदत्ता ने मूलदेव की अचल द्वारा जब बिडम्बना होते देखी तो उसे भी अचल के प्रति फटकारा- अरे धनमदान्ध मूर्ख ! क्या तुमने सामने मेरे ही घर में तुमने मूलदेव के साथ क्षमा नहीं करूंगी। तुम्हें मटियामेट करके
राजा ने कहा - "तुम जो चाहो
घृणा हो गई। एक दिन मौका देख कर उसने अचल को मुझे अपनी कुलगृहिणी समझ रखा है ? जो उस दिन मेरे ऐसा तुच्छ व्यवहार किया। याद रखना, मैं तुम्हें इसके लिए ही छोड़ंगी ।' बस, आज से मेरे घर में पैर रखने की जरूरत नही ।" इस प्रकार तिरस्कारपूर्वक अचल को उसने घर से निकाल दिया। उसके बाद देवदत्ता राजा के पास पहुंची। और उनसे कहा 'देव ! आपके पास मेरा जो वरदान अमानत रखा हुआ है उसे मैं आज लेना चाहती हूँ ।" सो वरदान मांग लो, मैं वचनबद्ध हूं।" देवदत्ता ने वरदान मांगा कि "आज से मूलदेव के सिवाय और किसी को मेरे घर पर आने की आज्ञा मत देना। खासतौर से अचल पर तो अवश्य प्रतिबन्ध लगा दें क्योंकि वह प्रायः मेरे यहां आया करता है।' राजा बोला- 'अच्छा, ऐसा ही होगा। "परन्तु यह तो बताओ, ऐसा प्रतिबन्ध लगाने का क्या कारण है ?" इस पर देवदत्ता ने माधवी को आँख के इशारे से सूचित किया कि वह उसे सारा हाल बता दे । माधवी ने अथ से इति तक सारी घटना सुनाई। सुनते ही जितशत्रु राजा की भौंहें तन गई । उसने क्रुद्ध हो कर सार्थवाह अचल को बुलाया और तिरस्कारपूर्वक कहा - 'मूर्ख ! कान खोलकर सुन ले ! मेरे राज्य के वे दोनों रत्न हैं, माभूषण हैं। तुमने अपने धन के
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