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मंडिक चोर का पता लगा कर राजा मूलदेव ने सिफ्त से उसका धन निकलवाया कुमारी देवी सरीखी रूपयौवनसम्पन्न, लावण्य और सौन्दर्य से युक्त, सुडौल अवयवों से सुशोभित एक कमाग बैठी थी, जो उसकी बहन थी। चोरपति ने बहन को आदेश दिया-'इस अतिथि के दोनों पर पोहोरबह राजा को निकट ही एक कए पर ले गई और उसे एक आमन पर बिठाया। कंए से पानी निकाल कर बह कमलनयनी कन्या राजा के पैर धोने लगी। राजा के कोमल अंगों का स्पर्श होने से उसे सुखानुभव हुआ। उसने गौर से सभी अंगों पर दृष्टिपात किया और विस्मित हो कर मन ही मन सोचा--यह तो माक्षात् कामदेव ही है। इसे मारना ठीक नहीं।' राजा पर वह अत्यन्त मोहित और दया हो गई। उसने राजा मे कहा---'महाभाग ! पैर धोने के बहाने इस कुए में बहुत-से मनुष्यों को गिग दिये हैं । चोरों के दिल में दया कहां? यह तो मैं आपके रूपलावण्य को देख कर आप पर मोहित
और प्रभावित हो गई; इसलिए आपको मैं इस कुए में नहीं डालूगी। महापुरुप का प्रभाव अद्भुत वशीकरणयुक्त होता है। उसलिए स्वामिन् ! मेरा अनुरोध है कि आप यहां से झटपट चले जाइए, नहीं तो हम दोनों की खैर नहीं है।' गजा तत्काल वहाँ से उठ कर बाहर निकल गया। चतुर पुरुप पराक्रमी होते हुए भी शत्र को बुद्धिबल से मारते हैं। राजा के काफी दूर चले जाने के बाद वह लड़की जोर से चिल्लाई 'भाई, वह तो भाग गया, दौड़ो-दौड़ो जल्दी, वह चला गया ।' अपने परिचित या स्नेही को बचाने के लिए बुद्धिशाली ऐसे उपाय किया करते हैं। मडिक चोर कंकजाति की तीखी धार वाली तलवार ले कर वेताल के समान बाहर जीभ लटकाए हुए फुर्ती से राजा के पीछे दौड़ा। बृहस्पति के समान बुद्धिमान राजा उसे नजदीक आया जान कर चौक में खड़े किये हुए पत्थर के एक खंभे के पीछे छिप गया । क्रोध में लाल-लाल आंखें किये हुए मंडिक चोर ने आव देखा न ताव, खभे को ही पुरुष ममझ कर कंकजातीय तलवार से छेदन करके अपने स्थान को लौट आया। चोर का पता लग जाने से राजा भी हर्षित हो कर अपने महल में चला गया। दूसरों को परेशान करने वाला पकड़ा जाय तो किसे खुशी नही होती?
प्रात.काल विश्वमानसहारी राजा उपवन में घूमने के बहाने चोर का पता लगाने के लिए निकला। एक कपड़े की दुकान पर सिलाई का काम करता हुआ, जांघों और पिंडलियों पर कपड़े के टुकड़े लपेटे हुए जरा-सा मुंह बाए मंडिकचोर बैठा था । वासलता से ढकी हुई टट्टी की तरह कपड़ों से कपटपूर्वक ढको हुई आकृति बनाए हुए उस चोर को देख कर अनुमान से राजा रात को देखे हुए उस चोर को पहचान गया। राजा ने तुरल राजमहल में आ कर कुछ विश्वस्त सेवक बुलाए और हुलिया बता कर कहा कि-'अमुक-अमृक स्थान पर जिसके कपड़े की पट्टियां बंधी हुई हैं, उसे यहां बुला ले आओ। सेवक उस स्थान पर पहुंचा । और गौर से देख कर उसके पास, जा कर सेवक ने कहा- आपको राजाजी सम्मानपूर्वक बुला रहे हैं ।' चोर ने सुनते ही मन में सोचा-'हो न हो, यह वही पुरुष है, जो उस समय मेरे यहां से भागने में सफल हो गया था, मारा नहीं गया है । उसी का ही यह परिणाम है कि अब राजा बुला रहा है। राजा-महागजा अकसर चोर को पहिचान जाते हैं।' यह सोच कर वह चोर राजकुल में गया। राजा ने उसे अपने पास बड़े आसन पर बिठाया। क्योंकि मारना चाहने वाले नीतिज्ञपुरुष पहले उस पर महाप्रसाद करते हैं। मंद-मंद मुस्कराते हुए राजा ने मधुर वचनों से उसे कहा - 'तुम अपनी बहन मुझे दे दो। कन्या तो दूसरों को देने योग्य ही होती है।' अब तो मंडिक को निश्चय हो गया कि मेरी बहन को इमने पहले देखा है, इसलिए इसके सिवाय और कोई वहां नहीं गया, यह राजा ही गया है। उसने राजा से कहा-'देव ! आप मेरी बहन के साथ पाणिग्रहण करें। वह तो आपकी ही है ! और मेरे पाम जो कुछ भी है, वह सब भी आपका ही है। जैसे कृष्ण ने अनुरक्ता