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योगशास्त्राप्रपम प्रकाश
व्याख्या भैरव, चण्डी आदि देव-देवियों को बलिदान देने के लिए अथवा महानवमी, माघ-अष्टमी, चंत्र-अष्टमी, श्रावण शुक्ला एकादशी आदि पर्वदिनों में देवपूजा के निमित्त से भेंट चढ़ाने के लिए जीवों का वध करते हैं, वे नरक आदि भयंकर गतियों में जाते हैं। यहां देवता को भेंट चढ़ाने आदि निमित्त का विशेषरूप से कथन किया गया है। और उपसंहार में कहा गया है-'यज्ञ के बहाने से।' जब निर्दोष और स्वाधीन धर्मसाधन मौजूद हैं तो फिर सदोष और पराधीन धर्मसाधनों को पकड़े रखमा कथमपि हितावह नहीं माना जा सकता। घर के आंगन में उगे हुए आक में ही मधु मिल जाय तो पहाड़ पर जाने की फिजूल मेहनत क्यों की जाय ? हिंसाधर्मियों का और भी बौद्धिक दिवालियापन सूचित करते है
शमशीलदयाःलं हित्वा धर्म जगद्धितम् । अहो हिंसाऽपि धाय जगदे मन्दबुद्धिभिः ॥४०॥
अर्थ
जिसकी जड़ में शम, शील, और दया है, ऐसे जगत्कल्याणकारी धर्म को छोड़ कर मंदबुद्धि लोगों ने हिंसा को भी धर्म की कारणभूत बता दी है, यह बड़े खेद की बात है।
व्याख्या कषायों और इन्द्रियों पर विजयरूप शम, सुन्दर स्वभावरूप शील और जीवों पर अनुकम्पारूप दया ; ये तीनों जिस धर्म के मूल में हैं, वह धर्म अभ्युदय (इहलौकिक उन्नति) और नि.श्रयस (पारलौकिक कल्याण या मोक्ष) का कारण है। इस प्रकार का धर्म जगत् के लिए हितकर होता है। परन्तु खेद है कि ऐसे शमशीलादिमय धर्म के साधनों को छोड़ कर हिसादि को धर्मसाधन बताते हैं, और वास्तविक धर्मसाधनों की उपेक्षा करते हैं। इस प्रकार उलटा प्रतिपादन करने वालों की बुद्धिमन्दता स्पष्ट प्रतीत होती है।
यहां तक लोभमूलक शान्ति के निमिन से की जाने वाली लोभमूलक हिंसा, कुलपरम्परागत हिंसा, यज्ञीय हिंसा या देवबलि के निमित्त से की जाने वाली हिंसा का निषेध किया; अब पितृपूजाविषयक हिंसा के सम्बन्ध में विवेचन बाकी है, वह दूसरे शास्त्र (मनुस्मृति के तीसरे अध्याय) से ज्यों का त्यों ले कर निम्नोक्त ६ श्लोकों में प्रस्तुत करते हैं
हविर्यच्चिररात्राय यच्चानन्त्याय कल्पते । पितृभ्यो विधिवदत्तं, तत्प्रवक्ष्या शपतः ॥४१॥ तिलवीयवरिद्भिर्मूलफलेन च। दत्तेन मासं प्रीयन्ते विधिवत् पितरो नृणाम् ॥४२॥ द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन त्रीन् मासान् हारिणेन तु । औरणाऽथ चतुरः शाकुनेनेह पञ्च तु ॥४३॥