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यश में की गई पशुहिंसा क्रूरपापफलदायिनी है ।
व्याख्या
बेचारा लोकायतिक या चार्वाक दंभरहित होने से जैमिनि की अपेक्षा से तो कुछ अच्छा माना जा सकता है । परन्तु वेद-वचनों को प्रस्तुत करके तापसवेप की ओट में जीवों की हिंसा का खुल्लमखुल्ला विधान करके जनता को ठगने वाला राक्षस सरीखा जैमिनि अच्छा नहीं । उसका यह कथन कि 'यज्ञ के लिए ब्रह्मा ने पशुओं को पैदा किया है, केवल वाणीविलास है; सच तो यह है कि सभी जीव अपने अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न शुभाशुभ योनियों में उत्पन्न होते हैं। इसलिए दूसरे को उत्पन्न करने वाला बता कर सृष्टिवाद का प्ररूपण करना गलत है। 'विश्व के सभी प्राणियों की सुखशान्ति के लिए ( पशुवधमूलक ) यज्ञ करें यह कवन नी अर्थवाद है या पक्षपातयुक्त है। 'वैदिकी या याज्ञिकी हिंसा हिमा नहीं होती', यह कथन भी हास्यास्पद है। यज्ञ के लिए मारे गये या नष्ट किये गए औषधि आदि के जीवों को उत्तमगति मिलनी है यह वचन तो उस पर अन्धश्रद्धा रखने वालों का ममझना चाहिए। सुकृत किये बिना यज्ञ के निमित्त वध किये जाने मात्र से उच्चगति नहीं हो सकती और मान लो, यज्ञ में मारे जाने मात्र से ही किसी को उच्चगति मिल जाती तो अपने माता-पिता को यज्ञ में मार कर उच्च गति में क्यों नहीं भेज देने या स्वयं यज्ञ में मर कर झटपट स्वर्ग में क्यों नहीं चले जाते ? इसीलिए बेचारा निर्दोष पशु मानो याज्ञिक मे निवेदन करता है - " महाशय ! मुझे स्वर्ग में जाने की कोई ख्वाहिश नहीं है । मैं आपसे स्वर्ग या और कुछ मांग भी नहीं रहा हूं। मैं तो हमेशा घाम तिनका खा कर ही संतुष्ट रहता हूँ । इसलिए मुझे स्वर्ग का लालच दिखा कर इस प्रकार मारना उचित नहीं है। अगर यज्ञ में मारे हुए सचमुच स्वर्ग में जाने हो तो आप अपने माता, पिता या अन्य बन्धुओं को यज्ञ में होम करके स्वर्गं क्यों नहीं भेज देते ?" 'मधुकं आदि हिंसा कल्याणकारिणी होती है, अन्य नहीं होती' ; यह किसी स्वच्छन्दाचारी के वचन हैं। हिमा हिंसा में कोई अन्तर कैसे हो सकता है कि एक हिंसा तो कल्याणकारिणी हो और दूम हिंसा अकल्याणकारिणी हो । विष विष में क्या कोई अन्तर होता है ? इसलिए पुण्यात्माओं को गव प्रकार की हिमाओं का त्याग करना चाहिये। जैसा कि दशवैकालिकसूत्र ( जैनागम ) में कहा है - सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। इसलिए निर्ग्रन्थमुनि प्राणिवध-से घोर कर्म का त्याग करते हैं ।' पहने जो कहा गया था कि 'पशुवधपूर्वक किया गया यज्ञ खुद को तथा उस पशु को उत्तम गति प्रदान करता है यह कथन भी अतिसाहसिक के सिवाय कौन करेगा ? हो सकता है, मरने वाले अहिंसक पशु को ( उसको शुभभावना हो तो ) अकाम-निर्जरा से उत्तमगति प्राप्त हो जाय, मगर यज्ञ में पशुवधकर्ता या पशुवधप्रेरक याज्ञिक ब्राह्मण को उत्तमगति कैसे सम्भव हो सकती है ?
इस विषय का उपहार करते हुए कहते हैं -
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व्याजन
देवोपहारव्याजेन येऽथवा । घ्नन्ति जन्तून् गतघृणा घोरां ते यान्ति दुर्गतिम् ॥ ३९ ॥
अर्थ
देवों को बलिदान देने (भेंट चढ़ाने के बहाने अथवा यज्ञ के बहाने जो निर्दय हो कर जोवों को मारते हैं, वे घोर दुर्गति में जाते हैं ।