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हिंसापरक शास्त्रवचनों के नमूने
षण्मासाशनगमांसन पार्षतेनेह सप्त वै। अष्टावेणस्य मांसेन रौरवेण नवैव तु ॥४४॥ दशमासांस्तु तृप्यन्ति वराहमहिषामिषः । शशकुर्मयोमसिन मासानका शव तु ॥४५॥ संवत्सरं तु गव्येन पयसा पायसेन तु । वार्डोणसस्य मांसेन तृप्तादशवार्षिकी ॥४६॥
अर्थ जो हवि (बलि) चिरकाल तक और किसी समय अनन्तकाल दी जाने का विधान है, इन दोनों प्रकार की बलि विधिपूर्वक पितरों को दी जाय तो उन्हें (पिता आदि पूर्वजों को) तृप्ति होती है। पितृतर्पण को विधि क्या है ? यह सब मैं पूर्णरूप से कहूंगा। तिल, चावल, जौ, उड़द, जल, कन्दमूल और फल को हवि (बलि) विधिपूर्वक देने से मनुष्यों के पितर (पिता आदि पूर्वज) एक मास तक तृप्त होते हैं ; मछली के मांस की बलि देने से दो मास तक, हिरण के मांस से तीन महीने तक, भेड़ के मांस से चार महीने तक, पक्षियों के मांस से ५ महीने तक, पार्षत नामक हिरण के मांस से ७ महीने तक, रौरवजाति के मग के मांस से नौ महीने तक, सूअर और भैसे के मांस से १० महीने तक तथा खरगोश और कछुए के मांस से ग्यारह महीने तक पितर तृप्त होते हैं। गाय के दूध और दूध को बनी हुई खोर को हवि से बारह महीने (एक वर्ष) तक पितर तृप्त हो जाते हैं। इन्द्रियबल से भोण बढ़े सफेद बकरे की बलि दी जाय तो उसके मांस से पितर आदि पूर्वजों को बारह वर्ष तक तृप्ति हो जाती है। पूर्वोक्त ४६वें श्लोक में श्रुति और अनुमति इन दोनों में से श्रुति बलवती होने से 'गव्येन पयसा' एवं 'पायसेन' शब्द से क्रमशः गाय का मांस या गाय के मांस की खीर अर्थ न लगा कर, गाय का दूध और दूध की खोर अर्थ ग्रहण करना चाहिए। कई व्याख्याकार पायस शब्द की व्याख्या यों करते हैं कि मांस के साथ पका हुआ दूध अथवा दूध से बना हुआ दही आदि पायस कहलाता है। अथवा दूध में पके हुए चावल, जिसे दूधपाक या खोर कहते हैं। वह भी पायस कहलाता है।
पितृतर्पण के निमित्त से हिंसा का उपदेश देने वाले पूर्वोक्त शास्त्रवचन उद्धत करके अब उस हिंसा से होने वाले दोष बताते हैं
इति सत्यनुसारण पितृणां तर्पणाय या। मूविधीयते हिंसा, साऽपि दुर्गतिहेतवे ॥४७॥
अर्थ इस प्रकार स्मृतिवाक्यानुसार पितरों के तर्पण के लिए मूढ़ जो हिंसा करते हैं, वह मी उनके लिए दुर्गति का कारण बनती है।