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योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश
व्याख्या
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पूर्वोक्त स्मृति (धर्मसंहिता) आदि में उक्त- 'पिता वादा और परदादा को पिड अर्पण करें, इत्यादि वचनों के अनुसार पितृवंशजों के तर्पण करने हेतु सुढ (विवेकविकल) जो हिंसा करते हैं, उसके पीछे मांसलोलुपता आदि ही कारण नहीं है, वरन् नरक आदि दुर्गति की प्राप्ति भी कारणरूप है 'जरा-सी हिंसा नरक-जनक नहीं बनेगी, ऐसा मत समझना । मतलब यह है कि एक तो किमी को उपदेश न देकर स्वयं उक्त निमित्त से हिंसा करता है, वह तो थोड़ी-मीटिंग से स्वयं नरकादि दुर्गति में जा कर उसका फल भोग लेता है, लेकिन जो पिता आदि पूर्वजों की तृप्ति के लिए विस्तृतरूप मे दूसरों को उक्त हिसा के लिए प्रेरित करता है, उपदेश देता है. और अनेक भोले जीवों की बुद्धि भ्रान्त कर देता है, वह अनेकों लोगों द्वारा हिंसा करवा कर भयंकर नरक में उन्हें पहुंचाना है, खुद भी घोर नरक के गड्ढे में गिरता है । तिल, चावल या मछली के मांस से जो पितरों की तृप्ति होने का विधान किया गया है, वह भी भ्रान्ति है । यदि मरे हुए जीवों की इन चीजों मे तृप्ति हो जाती हो तो बुझे हुए दीपक में सिर्फ तेल डालने से उम दीपक की लौ बढ़ जानी चाहिए। हिंसा केवल दुर्गति का कारण है, इतना ही नहीं, जिन जीवों की हिंसा की जाती है, उनके साथ वैर-विरोध वधने की भी कारण है। इसीलिए हिसक को इस लोक और परलोक में सर्वत्र हिंसा के कारण सबमे भय लगना रहता है। मगर अहिंसक तो ममस्त जीवो को अभयदान देने में शुरवीर होता है, इस कारण उसे किसी भी तरफ से किसी से भय नहीं होता । इसी बात की पुष्टि करते है -
यो भूतेष्वभयं दद्यात्, यादृग् वितीर्यते
दान
भूतेभ्यस्तस्य नो भयम् । तागासाद्यते फलम् ॥४८॥
अर्थ
जो जीवों को अभयदान देता है, उसे उन प्राणियों की ओर से कोई भय नहीं होता, क्योंकि जो जिस प्रकार का दान देता है, वह उसी प्रकार का फल प्राप्त करता है।
व्याख्या
इस तरह यहाँ तक हिमा में तत्पर मनुष्यों को उनकी हिमा का नरकादि दुर्गतिरूप फल बताया । अब निन्द्यचरित्र हिसक देवों की मूढजनो द्वारा की जाने वाली लोकप्रसिद्ध पूजा का खण्डन करते हैं
कोदण्ड-दण्ड - चक्रासि-शूल - शक्तिधराः सुराः ।
हिंसका अपि हा ! कष्टं पूज्यन्ते देवताधिया ॥ ४९ ॥
अर्थ
'अहा ! बड़ा अफसोस है कि धनुष्य, दण्ड, चक्र, तलवार, शूल और माला (शक्ति) रखने (धारण करने वाले हिंसक देव देवत्व-बुद्धि (दृष्टि) से पूजे जाते हैं ।'
व्याख्या
अत्यन्त खेद की बात है कि रुद्र आदि हिमपरायण देव आज अपढ़ और मामान्य लोगों द्वारा विविध पुष्प, फल आदि ( एवं मद्य-मांस आदि) मे पूजे जाते है, और वह भी देवत्वबुद्धि से । उक्त देवों की हिंसकता का कारण उनके साथ रहने वाले शस्त्र अन्त्र आदि चिह्न हैं- यानी धनुष्य, दण्ड,