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चोरी का फल और मूलदेव के कलापण्डित्य का आकर्षण
सातों राजदण्ड ( दण्डविधानशास्त्र) की दृष्टि से चोरी के अपराधी कहे गए हैं ।
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चोरी करने की प्रवृत्ति में दोष और उससे निवृत्ति में जो गुण है उसे दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं। संबन्ध्यपि निगृह्येत चौर्यान्मण्डिकवन्नृपं ।
चौरोऽपि त्यक्तचौर्यः स्यात् स्वर्गभाग् रोहिणेयवत् ॥७२॥
अर्थ
चोरी करने वाले के सम्बन्धियों को भी मंडिक चोर के सम्बन्धियों की तरह राजा पकड़ता है और चोर होने पर भी चोरी का त्याग करने से रोहिणेय की तरह स्वर्ग-सुख का अधिकारी हो जाता है ।
नीचं दोनों दृष्टान्त क्रमशः दे रहे हैं
व्याख्या
मूलदेव और मण्डिक चोर
गौड़देश में पाटिलपुत्र नामक एक नगर था । समुद्र के जल के समान उसका मध्यभाग efeater नही होता था । अनेक कलाओ का स्रोत, साहसिक बुद्धि का मूल, वहाँ का राजकुमार मूलदेव था। वह धूर्त विद्या में शिरोमणि, कृपण और अनाथ का बन्धु, कूटनीति में चाणक्यवत् प्रवीण, दूसरों के अन्तरंग को भांपने में चालाक, रूप और लावण्य में कामदेव के समान, चोर के साथ चोर, साधु के साथ साधु, टेढ़े के साथ टेड़ा और सीधे के साथ सीधा, गंवारों के साथ गंवार, चतुर के साथ चतुर, जार के साथ जार, भट के साथ भट, जुआरी के साथ जुआरी, गप्प हांकने वालों के साथ गप्पी था । उसका हृदय स्फटिक रत्न के समान स्वच्छ था । इसलिये झटपट दूसरे की असलियत को जान जाता था । वह आश्चर्यजनक कौतुक दिखा कर लोगों को विस्मित करता हुआ महाबुद्धिशाली विद्याधर के समान इच्छानुसार घूमता था । उसमें जुआ खेलने का बहुत बड़ा ऐब था। इस कारण पिता ने उसे अपमानित करके घर से निकाल दिया था । अतः वह घूमता- घामता देवपुरी की तरह शोभायमान उज्जयिनी नगरी में पहुंचा । जादुई गोली के प्रयोग से वहां वह कुबड़ा और बौना बन गया । इस प्रकार के बहुत से करतब दिखा कर वह लोगों को आश्चर्य में डाल देता । धीरे-धीरे अपनी कलाओं से उसने वहां प्रसिद्धि प्राप्त कर ली । उज्जयिनी नगरी में ही रूपलावण्य और कलाविज्ञान की कुशलता में रति को लज्जित कर देने वाली देवदत्ता नाम की उत्तम गणिका रहती थी। कला के समस्त गुणों में वह निष्णात हो गई थी । उस चतुर गणिका को मनोरंजन करने वाला उसकी बराबरी का वहाँ कोई नहीं था । मूलदेव ने जब यह सुना तो उसे आकर्षित करने के लिये उसके घर के पास ही अपना डेरा जमाया। उससे सुबह-सुबह साक्षात् देव, गंधर्व या तु बरु के समान संगीत की तान छेडी । देवदत्ता के कानों में गायन की मधुर शंकार पड़ी तो उसने पूछा- इतना मधुर स्वर किसका है ? उसने अत्यन्त विस्मित हो कर अपनी दासी को इसका पता लगाने भेजा । दासी ने तुरन्त तलाश करके गणिका से कहा - "देवी ! देखने में तो बौना-सा है, लेकिन कण्ठ इतना अच्छा है और स्वभाव इतना मृदु है कि इस क्षेत्र में तो उसकी जोड़ का कोई गायक नहीं है ।" तब देवदत्ता ने उसे बुलाने के लिए माधवी नाम की कुबड़ी दासी भेजी । 'अधिकांश वेश्याएं कलाप्रिय होती हैं ।' कुब्जा ने उसके पास जा कर कहा 'हे महाभाग ! कला भण्डार ! मेरी स्वामिनी आपको आदरपूर्वक बुला रही है।" इस पर मूलदेव ने कहा – कुब्जे ! मैं नहीं आ सकता । कुट्टिनी के अधीन रहने वाली वेश्या के घर में कौन स्वतन्त्रजीवी प्रवेश कर सकता