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पर्वत - नारद-विवाद में वसुराजा द्वारा असत्यनिर्णय से नरकप्राप्ति
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समान बर्ताव करना चाहिए ।' अकाल में रोष करने वाले यमराज ने आज किसके नाम की चिट्ठी निकाली है ? माताजी! मुझे बताओ कि मेरे बन्धु को कौन मारना चाहता है ? मेरे रहते आप क्यों चिन्ता करती हैं ?' तब पर्वत को माता ने कहा – 'अज – शब्द के अर्थ पर पर्वत और नारद दोनों में विवाद छिड़ गया । इस पर मेरे पुत्र पर्वत ने यह शर्त लगाई है कि यदि 'अज' का अर्थ बकरा न हो तो मैं जीभ कटाऊँगा और 'बकरा' हो तो तुम जीभ कटाना । इस विवाद के निर्णयकर्ता प्रमाणपुरुष के रूप में दोनों ने तुम्हें माना है। इसलिये मैं तुममे प्रार्थना करने आई हूं कि अपने बन्धु की रक्षा करने हेतु अज' शब्द का अर्थ बकरा ही करना । महापुरुष तो प्राण दे कर भी परोपकार करने वाले होते हैं, तो फिर वाणी से तुम इतना सा परोपकार रहीं करोगे ?" यह सुन कर वसुनृप ने कहा- 'माताजी ! यह तो असत्य बोलना होगा। मैं असत्य वचन कैसे बोल सकता हूँ ? प्राणनाश का अवसर आने पर भी सत्यवादी असत्य नहीं बोलते। दूसरे लोग कुछ भी बोलें, परन्तु पापभीरु को तो हर्गिज नही बोलना चाहिए और फिर गुरुवचन के विरुद्ध बोलना या झूठी साक्षी देना, यह बात भी मुझसे कैसे हो सकती है ?' पर्वत की माता ने रोष में आ कर कहा 'तो फिर दो रास्ते है तेरे सामने -यदि परोपकारी बनना है तो गुरुपुत्र की रक्षा करके उसका कल्याण करो और स्वार्थी ही रहना है तो सत्यवाद का आग्रह रखो ।' इस प्रकार बहुत जोर दे कर कहने पर वसुराजा ने उसका वचन मान्य किया । क्षीरकदंबक की पत्नी हर्षित हो कर घर चली आई |
ठीक समय पर विद्वान् नारद और पर्वत दोनों निर्णय के लिये वसुराजा की राजसभा में आए । सभा में दोनों वादियों के सत्य-असत्यरूप क्षीर- नीरवत् भलीभांति विवेक करने वाले उज्ज्वल प्रभावान् माध्यस्थ गुण वाले सभ्य लोग एकत्रित हुए । सभापति वसुराजा एक स्वच्छ स्फटिक शिला की वेदिका पर स्थापित सिंहासन पर बैठा हुआ ऐसा सुशोभित हो रहा था, मानो पृथ्वी और आकाश के बीच में सूर्य हो । उसके बाद नारद और पर्वत ने सुराजा ने सामने 'अज' शब्द पर अपनी-अपनी व्याख्या प्रस्तुत की और कहा - 'राजन् ! हम दोनों के बीच में आप निर्णायक हैं, आप इस शब्द का यथार्थं अर्थ कहिए। क्योंकि ब्राह्मणों और वृद्धों ने कहा है – 'स्वर्ग और पृथ्वी इन दोनों के बीच में जैसे सूर्य है, वैसे ही हम दोनों के बीच में आप मध्यस्थ हैं ; दोनों के विवाद में निर्णायक हैं । अब
आप ही प्रमाणभूत हैं । आपका जो निर्णय होगा, वही हम दोनों को मान्य होगा । सत्य या शपथ के लिये हाथ में उठाया जाने वाला गर्मागर्म दिव्य घट या लोहे का गोला वास्तव में सत्य के कारण स्थिर रहता है । सत्य पर ही पृथ्वी आधारित है, द्युलोक भी सत्य पर प्रतिष्ठित है । सत्य से हवा चलती है । सत्य से देव वश में हो जाते हैं। सत्य से ही वृष्टि होती है। सारा व्यवहार सत्य पर टिका है । आप दूसरे लोगों को सत्य पर टिकाते हैं तो आपको इस विषय में क्या कहना ? सत्यव्रत के लिये जो उचित हो, वही निर्णय दो ।" वसुराजा ने मानो सत्य के सम्बन्ध में उक्त बातें सुनी-अनसुनी करके किसी प्रकार का दीर्घदृष्टि से विचार न करते हुए कहा, 'गुरुजी ने अजान्-मेवान् अर्थात् अज का अर्थ बकरा किया था। इस प्रकार का असत्य वचन बोलते ही वेदिकाषिष्ठित देवता कोपायमान हुए। उन्होंने आकाश जैसी निर्मल स्फटिक शिलामयी वेदिका एवं उस पर स्थापित सिंहासन दोनों को चूरचूर कर दिया । वसुराज को तत्काल भूतल पर गिरा दिया, मानो उन्होंने उसे नरक मैं गिराने का उपक्रम किया हो । नारद भी तत्काल यों कह कर तिरस्कार करता हुआ वहां से चल दिया कि चाण्डाल के समान झूठी साक्षी देने वाले तेरा मुंह कौन देखे ? असत्य वचन बोलने से देवताओं द्वारा अपमानित वसुराजा घोर नरक में
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