________________
ब्रह्मदत्त द्वारा दीर्घराजा का विनाश, चक्रवर्ती-पदप्राप्ति और पांचभव के साथी की खोज ११ पर जैसे महासर्प बांबी से बाहर निकलता है, वैसे ही दीर्घराजा अपने सारे परिवार के साथ युद्धसामग्रीसहित नगर से बाहर निकला । इधर चूलनी रानी को संसार से अत्यन्त वैराग्य हो जाने से उसने पूर्णा नाम की प्रवर्तिनी साध्वी से दीक्षा ग्रहण करली और क्रमशः मुक्ति की अधिकारिणी बनी। नदी के जलचर जसे समुद्र के जलचरों से भिड़ जाते हैं, वैसे ही उधर दीर्घराजा के सैनिक ब्रह्मदत्त के सैनिकों से भिड़ गये ! दीर्घराजा के बहुत से सैनिक घायन हो कर गिर पड़े। तब दीर्घराजा स्वयं क्रोध से दांत पीसता हुआ सूअर के ममान भयंकर मुखाकृति बना कर शत्र को मारने के लिये दौड़ा । लेकिन ब्रह्मदत्त की पंदल-सेना, रथ-सेना और अश्वारोही सेना नदी के तेज प्रवाह को नरह तेजी से चारों ओर फैल गई। उसके बाद ब्रह्मदत्त भी क्रोध से लाल-लाल आंखें करके हाथी के माथ जमे हाथी भिड़ता है, वैसे ही गर्जना करता हुआ दीर्घराजा के साथ स्वयं भिड़ गया । प्रलयकाल के ममुद्र की नरंगों के समान वे दोनों परस्पर एक दुमरे पर अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार करने लगे। इमी बीच अवसर आया है. ऐसा जान कर सेवक के समान चारों ओर प्रकाश फेंकता हा एव सर्व दिगविजयशाली एक चक्ररत्न ब्रह्मादत्त की सेवा में प्रगट
आ। ब्रह्मदत्त ने उस चक्ररत्न से उसी समय दीर्घराजा का काम तमाम कर दिया। गोह को मारने में बिजली को कौन-सा परिश्रम करना पड़ता है ? क्या देर लगती है ? मागधों के समान स्तुति करते हुए
देव 'ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की जय हो', इस प्रकार बोलते हुए उस पर पुष्प-वृष्टि करने लगे। नागारिक लोग ब्रह्मदन को पिता, माता, या देवता के रूप में देखने लगे । इन्द्र जैसे अमगवती में प्रवेश करता है, वैसे ही उसने कांपिल्यपुर में प्रवेश किया। राज्यासीन होते ही ब्रह्मदत्त राजा ने पहले जिन-जिन के साथ विवाह किया था, उन पलियों को सब जगह से वुलवा ली ; और उन सब में पुष्पवती को 'स्त्रीरत्न' के रूप में प्रतिष्ठित की। फिर अलग-अलग स्वामित्व की राज्यसीमाओं वाले छहों खण्डों पर विजय प्राप्त करके ब्रह्मदत्त ने पृथ्वी को एकखण्डरूप बना दी। अर्थात एकछत्र चक्रवर्तीराज्य बना दिया। लगातार बारह वर्ष तक सब दिशाओं के राजाओं ने आ-आ कर भरत को जैसे अभिषिक्त किया था, वैसे ही उसका भी अभिषेक किया। चौसठ हजार स्त्रियों से विवाह करके उन्हें अपने अन्त:पुर में रखा । इस प्रकार ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती पूर्वजन्म में किये हुए तप रूपी वृक्ष के फलस्वरूप समग्र राज्यसुख का उपभोग कर रहा था । एक दिन महल में नाटक, संगीत, नृत्य एवं रागरंग चल रहा था ; इसी बीच उसकी एक दासी ने देवांगनाओं द्वारा गूंथा हुआ एक फलों का एक आश्चर्यकारी गुच्छा ब्रह्मदत के हाथ में समर्पित किया। ब्रह्मदत्त उसे गौर से देखते-देखते विचार करने लगा -."ऐसा फूलों का गुच्छा मैंने पहले भी कहीं पर देखा है।' मन में बार-बार ऊहापोह करने पर उसे इस जन्म से पहले के ५ जन्मों का स्मरण हो माया । फिर उसे याद आया कि मैंने ऐसा गुच्छा सौधर्म देवलोक में देखा था। पहले के ५ जन्मों में साथ-साथ रहे अपने सहोदर का तीव्र स्मरण होने से राजा अधीर हो उठा। वह बेहोश हो कर धड़ाम से गिर पड़ा । चक्रवर्ती की यह हालत देख कर चंदनजल के छींटे दियं ; जिससे वह होश में आया। स्वस्थ होने पर वह विचार करने लगा-'मेरे पूर्वजन्म का सगा भाई मुझे कैसे और कहा मिलेगा ? उसे पहिचानने के लिये 'आस्थ वासो मृगौ हंसो, मातंगावमरी तथा।' इस प्रकार का पूर्वजन्मपरिचायक आधा श्लोक सेवक को दिया । नगर में ढिंढोरा भी पिटवा दिया कि 'मेरे इस बाषे श्लोक को जो पूर्ण कर देगा, उसे मैं अपना माधा राज्य के दूंगा।' इस घोषणा को सुन कर नगर के लोगों में इस आधे श्लोक को जानने की बड़ी उत्सुकता जागी । सबने अपने नाम के समान इसे प्राय. कंठस्थ कर लिया। परन्तु एलोकार्धलिखित समस्या की पूर्ति कोई भी नहीं कर सका । उस समय पुरिमताल नगर में चित्र का जीव सेठ के पुत्र के रूप में जन्मा था। उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया था। अतः उसने दीक्षा ले कर प्रामानुग्राम विहार किया। एक दिन