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योगशास्त्र:हितीय प्रकाश
शासनभक्ति से उसे अपने घर ले आया और उसकी रक्षा की। देव ने, श्रेणिक राजा का यह रवैया देख कर सोचा-इन्द्र महाराज ने सभा में इसकी जैसी प्रशंसा की थी, वैसा ही मैंने पाया है। वास्तव में ऐसे परुषों के वचन मिथ्या नहीं होते। फिर इस देव ने दिन में भी प्रकाशमान नक्षत्रवेणि के समान एक हार और दो गोले श्रेणिक राजा को भेट किये। वह देव देखते-देखते यह कह कर स्वप्नवत् अदृश्य हो गया कि इस द्वार को टूटने पर जो जोड देगा, वह शीघ्र मर जायेगा । राजा ने चेलणा रानी को वह दिव्य मनोहर हार दिया और दो गोले दिये । नंदारानी ने ईलु दृष्टि से मन ही मन विचारा कि 'क्या मैं ऐसे तुच्छ उपहार के योग्य हूं। अतः रोषवश उसने दोनों गोले खंभे के साथ टकराले । जिससे गोले टूट गये । एक गोले में से चन्द्रयुगल के ममान निर्मल कुडलों का जोड़ा निकला और दूसरे में से देदीप्यमान दिव्यवस्त्रयुगल निकला। उम दिव्य पदार्थों को देख कर नंदारानी ने हपित हो कर उन उपहारों को स्वीकार किया । महान आत्माओं को आचिन्त्य लाम हो जाता है।
तत्पश्चात् श्रेणिक राजा अपने राजमहल में पहुंचा और प्रलोभन देते हुए कपिला से कहा-- "भद्रे ! यदि तू एक बार भी श्रद्धापूर्वक साधुओं को आहार देगी तो तुझे मालामाल कर दूंगा और दासता मे भी मुन कर दूंगा। तब कपिला ने उत्तर दिया - "देव ! यदि आप मुझे मार्ग की सारी सोने की बना दें अथवा नाराज हो कर मुझे जान से भी मार डालें तो भी मैं यह अकार्य नहीं करूंगी।" निराश राजा ने कालमोरिक को बुला कर उससे कहा- "तू जीवों को मारने का यह धंधा छोड दे; अगर तू धन के लोभ से यह कार्य करता है तो मैं तुझे पर्याप्त धन दूंगा।" उसने कहा-"मेरे बाप-दादों मे चले आये इस जीवों को मारने का धंधा मैं नहीं छोड़ सकता । इस पर मेरे परिवार के अनेक आदमी पलते हैं, जिससे मानव जिंदा रहे, उस हिंसा के करने में कौन-सा दोष है ?" राजा ने उसे अंधे कुए में डलवा दिया। यहां इस अंधे कुरा में डालने पर हथियार न होने पर नब यह कैमे हिंसा करेगा ? अतः पूरे एक दिन और रात बंद रहेगा । यह मोच कर श्रेणिक ने भगवान मे जा कर विनती की, 'भगवन् ! मैंने कालसौकरिक से एक दिन एक गत की हिंमा का काम तो बन्द करवा दिया है।' सर्वज्ञप्रभु ने कहा-"राजन् ! उसने अंधे कए में भी अपने शरीर के मल के पांच सौ भैसे बना कर मारे है । वहां जा कर देखो तो सही।" राजा ने देखा तो वैमा ही पाया । अतः श्रेणिक मन ही मन खंद करने लगा। 'मेरे पूर्व कमों को धिक्कार है; भगवान की वाणी मिथ्या नही होती।
हमेशा पांच सो भैसों को मारता हुआ वह कसाई महापापपुज में वृद्धि करने लगा । नरक की प्राप्ति होने से पहले तक उसके शरीर में भयकर से भयंकर महारोग पैदा हुए। आखिर में नरकगनिप्राप्ति के ममय महादारुण-पापवश वध करते हुए सूअर के समान व्याधि की पीड़ा से यातना पाते हुए इस लोक से विदा हुआ । उस समय वह हाय मां ! अरे बाप रे ! इम तरह जोर-जोर से चिल्लाता था। उसे स्त्री, शय्या, पुष्प, वीणा के शब्द या चन्दन आदि अनुकूल सुख-मामग्री, आंख, चमड़ी, नाक, कान तथा जीभ में शूल भौकन के समान अत्यन्त कष्टकर लगती था। पिता की यह दशा देख कर कालसौकरिक-पुत्र सुलस ने जगत् में आप्त और अभयदानपरायण श्री अभयकुमार से पिता की मारी हालत कही। उसने कहा-'तुम्हारे पिताजी ने जो हिंमा आदि भयंकर कर पापकार्य किये हैं, उनका फल ऐसा ही होता है । यह मन है, तीव्र पापकर्मों का फल भी तीव्र होता है। दूसरा कोई भी व्यक्ति इस पापकर्मविपाक से बचा नहीं सकता। फिर भी उसकी प्रीति के लिए ऐसा करो जिससे उसे शान्ति मिले। इसका तरीका यह है कि इन्द्रियों के विपरीत पदार्थों का सेवन कगो । विष्टा की दुर्गन्ध मिटाने के लिए जल उराका मही उपाय नहीं है।' इस पर सुलस ने