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हिंसा के कारण सुभूमचक्रवर्ती को नरक की प्राप्ति
ऐसी दानशाला बनाई, जिसमें कोई भी व्यक्ति बेरोकटोक आ कर दान ग्रहण कर सके । उसके अग्रभाग में सिंहासन स्थापित करके उस पर दाढ़ियों से भरे उस थाल को रखा।
__इधर आश्रम में प्रतिदिन तापसों से लालित-पालित सुभूम आंगन में बोये हुए पेड़ के समान दिनोंदिन बढ़ने लगा। एक दिन मेघनाद नाम के विद्याधर ने किसी निमित्त से पूछा-"मेरी यह कन्या पदमश्री सयानी हो गई है, इसे किसको दू?" तब उसने गणित करके कहा-'सुडोल कंधों वाले सुभूम को ही इसका वर बनाओ।' मेघनाद ने शुभ मुहूर्त देख कर सुभूम के साथ अपनी कन्या का पाणिग्रहण कर दिया और स्वयं उसका पारिपाश्विक सेवक बन कर रहने लगा। कल के मेंढक के समान अन्य स्थानों मे अनभिज्ञ सुभम ने एक दिन अपनी माता से पूछा- 'मां ! क्या लोक इतना ही है ? इससे आगे कुछ नही है ?" माना ने कहा --"बेटा | लोक का तो अन्त ही नहीं है ? हमारा आश्रम तो इस लोक के बीच में मक्खी के पर टिकाने जितने स्थान में है । इस लोक में प्रमिद्ध हस्तिनापुर नामका नगर है । वहां तेरे पिता महापराक्रमी कृतवीर्य राजा राज्य करते थे। एक दिन परशुराम तेरे पिता को मार कर उनके राज्य पर स्वयं अधिकार जमा कर बैठ गया। उसने इस पृथ्वी को क्षत्रिय-रहित बना दी है। उसके भय से ही तो हम यहां रह रहे हैं।' यह सुनते ही मंगलग्रह के समान वैरी पर क्रोध करता हुआ सुभूम तत्काल हस्तिनापुर पहुंचा । सचमुच, मत्रियतेन दुर होता है।' वह सिंह के समान सीधा परशुराम की दानशाला में पहुंचा और सिंहासन पर जा बैठा। दाढ़ियां क्षण भर में खीर रूप में परिणत हो गई। पराक्रमी सुभूम उस खीर को खा गया । सिंह जैसे हिरणों को मार डालता है, वैसे ही युद्ध के हेतु उद्यत जो भी ब्राह्मण वहां रक्षा के लिये तैनात थे, उन्हें मेघनाद विद्याधर ने मार डाले । दाढ़ी और केश फरफरा रहा परशुराम दांतों से होठ काटता हुमा क्रोध से कालपाश की तरह द्रुतगति से वहां आया ; जहां सुभूम था । आते ही उसने सुभूम पर अपना परशु फेंका। परन्तु जल में अग्नि के समान वह तत्काल शांत हो गया। उस समय दूसरा कोई शस्त्र न देख कर सुभूम ने भी दाढ़ियों वाला वह थाल उठाया और उसे चक्र की तरह घुमाने लगा । वह भी तत्काल चक्ररत्न बन गया। सच है, पुण्यसंपत्ति हो तो कौन-सी चीन असाध्य है ? अब सुभूम आठवें चक्रवर्ती के रूप में प्रगट हो गया था । अतः उसने उम तेजस्वी चक्र से कमल की तरह परशुराम का मस्तक काट डाला । जैसे परशुराम ने पृथ्वी को सात वार क्षत्रियरहित बना दी थी ; वैसे ही सुभूम ने २१ बार पृथ्वी को ब्राह्मणरहित बनाई । तत्पश्चात् भूतपूर्व राजा के हाथी, घोड़े रथ और पैदल सेना को मार कर रक्त की अभिनव सरिता बहाते हुए नवीन सेना के साथ सुभूम ने सर्वप्रथम पूर्व-दिशा का दिग्विजय किया। तत्पश्चात अनेक सुभटों के छिन्नमस्तकों से पृथ्वी को सुशोभित करने वाले सुभम ने दक्षिणदिशा-पति की तरह दक्षिणदिशा में विजय-अभियान करके वहां भी विजय प्राप्त की। विजय प्राप्त करके उसने वहां सर्वत्र विजयपताका फहरा दी। फिर अनायास ही बताढ्य गुफा को उघाड़ कर मेरुपर्वत के समान पराक्रमी सुभूम ने मलेच्छों को जीतने के लिये भारत के उत्तराखंड में प्रवेश किया। इस तरह चारों दिशाओं में भ्रमण करते हुए सुभूम ने सुभटों तथा पृथ्वी का उसी तरह चूर-चूर कर दिया, जैसे चक्की के दो पाट चनों को कर देते हैं । इसी प्रकार उसने पश्चिम दिशा की विजय के चिह्नस्वरूप सुभटों की हड्डियों को पश्चिमी समुद्र तट पर ऐसे बिखेर दी, मानो समुद्रतट पर चारों ओर सीप और शंख फैले हों। इस प्रकार सुभूम ने छह खण्डों की साधना की। निररत पंचेन्द्रियजीवों की हत्या करते हुए एवं रौद्रध्यानरूपी अग्नि से अन्तरात्मा को सतत जलाते हुए सुभूम चक्रवर्ती मर कर सातवीं नरकभूमि में गया ।
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