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योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश बड़ा होता जायेगा त्यों-त्यों हम दोनों के लिए उसी तरह खतरनाक हो जायेगा, जिस तरह केसरीसिंह हाथो-हथिनी के लिए होता है। इसलिए जवान एवं पराक्रमी होने से पहले ही इस जहरीले पेड़ को समूल उखाड़ फैकना चाहिए। रानी यह बात सुनते ही सिहर उठी। वह बोली -"न, न प्रिय ! यह मुझसे कैसे हो सकेगा? तिर्यच पशु-पक्षी भी अपने पुत्रों को भी प्राण रक्षा करते हैं, तब मुझे तो मानव जाति की और इसकी मां होने के नाते इसकी रक्षा करनी चाहिए। फिर यह तो राज्य लक्ष्मी का अधिकारी है। इसका विनाश करते हुए मेरा दिल कांप उठता है।" इस पर दीर्घराजा ने कहा"अब तेरा पुत्रोत्पत्ति का समय तो आ ही रहा है। फिर व्यर्थ ही चिन्ता क्यों करती है ? मैं हूँ जव तक तेरे लिए पुत्रप्राप्ति दुर्लभ नहीं है ।" यह सुन कर शाकिनी के समान चूलनी भी रतिक्रीड़ामूढ़ और स्नेह-परवश हो कर पुत्रवात्सल्य को तिलांजलि दे कर दीर्घराजा की बात से सहमत हो गई । परन्तु साथ ही उसे बदनामी का भी भय था । इमलिए उसने दीर्घराजा से कहा--"प्रिय ! कोई ऐसा षडयंत्र रचो, जिससे हमारी बदनामी भी न हो और उसका विनाश भी हो जाय । मुझे तो यह काम एक ओर से आम्रवन सींचने और दूसरी ओर से, पितृतर्पण करने सरीखा अटपटा-सा लगता है । अथवा यों करें, कुमार का विवाह कर दिया जाय और वासगृह के बहाने इसके लिए एक ऐसा लाक्षागृह तैयार कर. वाया जाय, जिसमें गुप्तरूप से प्रवेश करने और निकलने के दरवाजे हों। विवाह हो जाने पर राजकुमार को पत्नी के साथ उसी लाक्षागृह में प्रवेश कराया जाय । रात में जब वे दोनों सो जाएं, तब आग लगा दी जाय ; ताकि अन्दर ही अन्दर जल कर मर जायेंगे। न हमारी बदनामी होगी और न हमारे लिए फिर कोई खतरा ही रहेगा।" इस प्रकार दोनों ने गुप्तमंत्रणा की। दूसरे ही दिन राजकुमार की सगाई पुष्पचूल राजा की कन्या के साथ तय कर दी गई और जोर-शोर से विवाह की तमाम तैयारियां होने लगीं।
इधर धनुमंत्री ने इन दोनों की बदनीयत जान कर दीर्घराजा से हाथ जोड़ कर विनति की, 'राजन् ! मेरा पुत्र वरधनु सब कलाओं में पारंगत और नीतिकुशल हो गया है। अतः अब वही जवान बल के समान आपकी आज्ञारूपी रथधुरा को उठाने में समर्थ है। मैं तो बूढ़ बल के समान कहीं आने-जाने एवं राजाज्ञा के भार को उठाने में असमर्थ हूँ। यदि आपकी अनुमति हो तो मैं किसी शान्त स्थल पर जा कर अन्तिम समय में धर्मानुष्ठान करूं।' यह सुन कर दीर्घराजा को ऐसी आशका हुई कि यह मायावी कही अन्यत्र जा कर कुछ अनर्थ करेगा; या हमारा मंडाफोड़ करेगा।" दीर्घराजा ने कपटभरे शब्दों में धनुमंत्री से कहा-'अजी! बुद्धिनिधान प्रधानमन्त्रीजी ! जैसे चन्द्र के बिना रात शोभा नहीं देती ; वैसे ही आपके बिना यह राज्य शोभा नहीं देता। इसलिए आप अब अन्यत्र नहीं भी न जाइये। यहीं दानशाला बना कर धर्म कीजिए । दूर जाने की क्या आवश्यकता है ? सुन्दर वृक्षों से जैसे बाग शोभायमान होता है, वैसे ही आपसे यह राज्य शोभायमान रहेगा।" इस पर बुद्धिशाली धनमंत्री ने भागीरथी नदी के तट पर धर्म का महाछत्र-सा एक पवित्र दानमंडप बनाया । वहीं दानशाला बना कर गंगा के प्रवाह के समान दान का अखण्डप्रवाह जारी किया। इसमें पथिकों को भोजनपानी आदि दिया जाता था। साथ ही धनुमंत्री ने दान, सम्मान और उपकार से उपकृत और विश्वस्त बनाए हुए पुरुषों से दानशाला से ले कर नवनिर्मित लाक्षागृह तक दो कोस लम्बी सुरंग खुदवाई। उधर उसने मैत्रीवृक्ष को सींचने के लिए जल के सदृश एक गुप्तलेख से वहाँ दीर्घ द्वारा हो रहे षड्यन्त्र का सारा वृत्तान्त पुष्पचूल को अवगत कराया। बुद्धिशाली पुष्पचूल भी यह बात सच्ची