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योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश
दिया । इस तरह सूत्रधार के समान ब्रह्मपुत्र का वेश बदलवा कर स्वयं मंत्रीपुत्र ने भी वैसा ही वेण बदला । यों पूर्णिमा के चन्द्रमा और सूर्य के समान दोनों मित्रों ने गाँव में प्रवेश किया। वहां किसी ब्राह्मण ने उन्हें भोजन के लिये आमंत्रण दिया। उसने राजा के अनुरूप भक्ति से उन्हें भोजन कराया । • प्रायः मुख के तेज के अनुसार सत्कार हुआ करता है। भोजनोपरांत ब्राह्मणपत्नी श्वेतवस्त्रयुगल से सुसज्जित कर अप्सरा के समान रूपवती एक कन्या को ले कर उपस्थित हुई ; जो कुमार के मस्तक पर अक्षत डालने लगी । यह देख कर वरधनु ने ब्राह्मण से कहा 'विचारमूढ़ ! साड के गले में गाय के समान कलाहीन इस बटुक के गले में इस लड़की को क्यों बांध रही हो ?" इसके उत्तर में विप्रवर ने कहा- यह गुणों से मनोहर बन्धुमती नाम की मेरी कन्या है । मुझे इसके योग्य वर इसके सिवाय और कोई नजर नहीं आता । निमित्तज्ञों ने मुझे बताया था कि इसका पति छह खण्ड पृथ्वो का पालक चक्रवर्ती होगा । और यह वही है। उन्होंने मुझे यह भी कहा था कि उसका श्रीवत्स चिह्न पट से ढका होगा और वह तेरे घर पर ही भोजन करेगा । उसे ही यह कन्या दे देना ।" उसी समय ब्राह्मण ने ब्रह्मदत्त के साथ उस कन्या का विवाह कर दिया। भाग्यशाली भोगियों को बिना किसी प्रकार का चिन्तन किये अनायास ही प्रचुर भोग मिल जाते हैं।" ब्रह्मदत्त उस रात को वही रह कर और बन्धुमती को आश्वासन दे कर अन्यत्र चल पड़ा। जिसके पीछे शत्रु लगे हों, वह एक स्थान पर डेरा जमा कर कैसे रह सकता है ? वहां से चल कर वे दोनों सुबह-सुबह एक गाँव में पहुंचे, जहाँ उन्होंने सुना कि दीर्घराजा ने ब्रह्मदत्त को पकड़ने के लिए सभी मार्गों पर चौकी पहरे बिठा दिये है। अतः वे टेढ़ मढ़े मार्ग से चलने लगे । दौड़ते-भागते वे दीर्घराजा के भयंकर सैनिकों के सरीखे हिस्र जानवरो से भरे घोर जगल में आए। वहां प्यासे कुमार को एक वटवृक्ष के नीचे छोड़ कर वरधनु मन के समान फूर्ती से जल लेने गया। वहां पर पहचान लिया गया कि 'यह वरधनु है, अतः सूअर के बच्चे को जैसे कुत्त घेर लेते हैं, वैसे ही दीर्घराजा के क्रुद्ध सैनिकों ने उसे घेर लिया । फिर वे जोर-जोर से चिल्लाने लगे – 'अरे ! पकड़ो, पकड़ो इसे ! मार डालो, मार डालो !" यों भयंकर रूप से बोलते हुए उन्होंने वरधनु को पकड़ कर बांध दिया । वरधनु ने ब्रह्मदत्त को भाग जाने का इशारा किया । अतः ब्रह्मदत्त कुमार वहां से नौ दो ग्यारह हो गया । 'पराक्रम की परीक्षा समय आने पर ही होती है ।' कुमार भी वहा સ एक के बाद दूसरी बड़ी अटवी को तेजी से पार करता हुआ बिना थके बेतहाशा मुट्ठी बांध आगे बढ़ा जा रहा था । इसी तरह वह एक आश्रम से दूसरे आश्रम में पहुंचा। वहां उसने बेस्वाद एवं अरुचिकर फल खाये । वहां से चल कर तीसरे दिन उसने एक तापस को देखा ! उससे पूछा भगवन् ! आपका आश्रम कहां है ? ' तापस कुमार को अपने आश्रम में ले गया। क्योंकि तापसों को अतिथि प्रिय होते हैं । कुमार ने आश्रम के कुलपति को देखते ही पितातुल्य मान कर उन्हें हर्ष से नमस्कार किया। अज्ञात वस्तु के लिये अन्तःकरण ही प्रमाण माना जाता है। के समान तुम सुन्दर आकृति वाले पुरुष यहां कैसे अथ से इति तक अपना सारा वृत्तान्त कह सुनाया। मुनते ही हर्षित हो कर कुलपति ने गद्गद स्वर से कहा- 'वत्स ! मैं तुम्हारे पिता का छोटा भाई हूँ । हम दोनों शरीर से भिन्न थे, परन्तु हृदय से अभिन्न थे । इसलिये तुम आश्रम को अपना घर समझ कर जितने दिन तुम्हारी इच्छा हो, उतने दिन खुशी से यहाँ रहो और हमारे मनोरथों के साथ हमारे तप में भी वृद्धि करो।' जननयनों को आनन्दित करता हुआ सर्ववल्लभ कुमार भी उस आश्रम में रहने लगा । इतने में वर्षाकाल आ पहुँचा। कुलपति ने अपने आश्रम में रहते हुए कुमार को सभी शास्त्र एवं
कुलपति ने उसमे पूछा- वत्स ! मरुभूमि में कल्पवृक्ष चले आये ?' ब्रह्मपुत्र ने महात्मा पर विश्वास रख कर क्योंकि प्रायः ऐसे पुरुषों से बात छिराई नहीं जाती ।