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वरधनु द्वारा माता का उद्धार एवं सागरदत्त के यहां दोनों का निवास
कर कोतवाल ने गजा से जा कर कहा --"देव ! धनमंत्री की पत्नी मर गई है। राजा ने अपने सेवकों को उमका अग्नि-संस्कार करने का आदेश दिया । यह सुन कर मैं भी तत्काल वहां पहुंचा। मैंने अग्नि संस्कार करने के लिए आए हुए सेवकों से कहा - भाई ! इम समय तुम इसका अग्नि-संस्कार करोगे तो तुम्हारे राजा का बड़ा भारी अनिष्ट होगा।" यह सुन कर वे राज सेवक उसे ज्यों की त्यों वहां छोड़ कर चले गये । तब मैंने कोतवाल से कहा-'यदि तुम महायना करो तो मैं इम सर्व-लक्षणयुक्त शव से एक मन्त्र सिद्ध कर ले। कोतवाल ने मेरी बात मान ली। मैं भी मन्ध्या समय माना कोश मणान से दूर ले गया। वहां पर एक जगह कपट मे मैंने एक मडलाकार यंत्र लिख कर नगर की देवियों को बलि देने के लिए कोनवाल को भेजा । इधर तो वह गया और उधर मैंने माता को दूमगे गुटिका दी, जिससे वह होश में आ कर इस प्रकार उठ खड़ी हुई जैसे कोई नींद से जम्हाई लेते हुए उठ खड़ा होता है । मैंने उसे अपना यथार्थ परिचय दिया। सुनते ही उसकी नो हिचकियां बंध गई। मैंने उसे ढाढस बंधा कर उसका रोना बंद कराया। फिर उसे कच्छ गाव में आने पिताजी के मित्र देवशर्मा के यहाँ ले गया। उनके यहां उसे छोड़ कर मैं तुम्हें ढूढने के लिए इधर-उधर घूमता हुआ यहां पर आया हूं। मेरे अहोभाग्य से साक्षात् पुण्यराशि के समान अभी मुझे आपके दर्शन हए । स्वामिन् ! अब आप बतलाइये कि मेरे से बिछुड़ने के बाद आप कहाँ-कहाँ गये ? और कहां-कहां ठहरे ? कहां क्या हाल रहा ?' कुमार ने भी अपनी राम कहानी सुनाई।
वहां से वे दोनों माथ-माथ जा रहे थे कि किसी ने आ कर धीमे से कहा . "गांव में दीर्घराजा के सुभट तुम-सी अकृति वाला चित्र । हूलिया) बता कर पूछते हुए घूम रहे हैं कि 'क्या ऐसी आकृति वाले कोई दो आदमी यहां आये किसी ने देखे हैं ?" उनकी बातें सुन कर मैं आप दोनों को देखते ही मूचित करने आया हूँ ।' अब आपको जसा उचित लगे वैसा करे । यों कह कर वह चल दिया। यह सुन कर वे दोनों माथी उम जगन में हाथी के बच्चे के समान भागते हुए एक दिन कौशाम्बी पहुंचे। वहां नगरी के बाहर उद्यान में उन्होंने सागरदन और बुद्धिल को एक लाख रुपये की शर्त पर मुर्गे लड़ाते देखा । वे मुग उड़-उड़ कर प्राण नाशक हथियार की नोक के समान अपने नखों और चोंचों से परस्पर लड़ रहे थे । लड़ते-लड़ते उन दोनों में मे भद्रहस्ती-सदृश उत्तमजाति के सशक्त मुर्गे को मध्यम-प्रकार के हाथी के समान बुद्धिल के मरियल मुर्गे ने हग दिया। यह देख कर वरधनु ने कहा-'सागर ! तेरा उत्तम जाति का मुर्गा होते हुए भी क्यों हार गया ? अगर तु इसका कारण जानना चाहता है तो मैं उसका पता लगाऊ?' सागर के सहमत हो जाने पर वरधनु ने बुद्धिक्त के मुर्ग को गौर से देखा तो उसके पैर में यमदूती के समान लोहे की सुई लगी हुई थी। बुद्धिल भी मन हो मन समझ गया कि यह मेरे कपट को जान गया है; अतः वरधनु के कान में गुपचुप ५० हगर रुपये देने की पेशकश की । वरधनु ने भी ब्रह्मकुमार से यह बात एकान्त में कही । ब्रह्मदत्त ने चुपके से बुद्धिल के मुर्गे के पैर में लगी हुई लोहे की सुई निकाल दी। और उसे फिर सागरदत्त के मुर्गे के साथ लड़ाया। सुई के निकाल लेने से बुद्धिल का मुर्गा पहले ही मोर्चे में जरा-सी देर में हार गया। 'कपट करने वाले नीच मनुष्य की विजय हो ही कैसे सकती है?' इससे सागरदस प्रसन्न हो कर विजय दिलाने वाले दोनों कुमारों को अपने रथ में बिठा कर अपने घर ले गया। वहां वे दोनों अपने घर की तरह रहने लगे । एक दिन वरधनु के पास आ कर बुद्धिल के नौकर ने कान में कुछ कहा । उसके चले जाने के बाद वरधनु ने ब्रह्मदत्त से कहा "भाई ! उस दिन बुद्धिल ने ५० हजार रुपये देने की पेशकश की थी। आज उस बात को आप देखना ।" उसके बाद शुक्रग्रह की तरह शोभायमान गोल बड़े-बड़े मोतियों का एक हार कुमार को बताया। कुमार ने हार पर